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________________ ४०४ लघुविद्यानुवाद मिथ्यात्व होगा अनत ससार का कारण होगा। धर्म की महिमा दिखाने के लिये, ससारी जीवन सुखी बनाने के लिए, धर्मोद्योत करने के लिये शासन देवी देवता का आदर, पूजा, स्तवन करना दोप नही है। इसमे मिथ्यात्व और मूढता नही है अपितु सम्यक्त्व का पोषण है । मानलो यदि मिथ्यादृष्टि भूत प्रेत व्यन्तर सता रहा है जिससे धर्म ध्यान मे बाधा पाती है तब मुनिराज या साधु उसके निराकरणार्थ उपाय बताकर उसकी रक्षा करते है साथ हो पच नमस्कार मन्त्र की आराधना करने का आदेश देते है। तव यह मिथ्यात्व नही है । यदि मिथ्यात्व समझा जायेगा तो जैन सहिताए' प्रतिष्ठा शास्त्र शिल्प शास्त्र प्रायश्चित शास्त्र तिरस्कृत हो जायेगे। अनादरणीय हो जायेगे। ऐसा समझने पर यशस्तिलक चम्पू, देवसेन द्वारा रचित 'भाव सग्रह' वामदेव रचित शास्त्र, वसुनन्दी श्रावकाचार, महापुराण, लघुसकलकोति शुभचन्द्र भट्टारक कृत शास्त्र, कथा कोप अनादरणीय हो जायेगे। प्रथमानुयोग कथा-पुराण सभी झूठे हो जायेगे.किन्तु ऐसा नही है सभी कथाए चमत्कार एव घटनाए, सत्य और जिन प्रणीत है। अकृत्रिम जिन चैत्यालयो मे अकृत्रिम जिनबिम्ब यक्ष यक्षिणी सहित है यह त्रिलोकसार मे श्री नेमिचन्द्राचार्य ने लिखा है। मिथ्यादप्टि देवो के निपेध के लिये सम्यक्दृष्टि देवो की पूजा सत्कार योग्य ही है ताकि सत्य देवनाराधना निविघ्न हो । इसलिये मैने यह, (श्री मद्रोर्वाण) नामक पद्मावती स्तोत्र लिखा है भव्यो के लोकीक कार्य की सिद्धि के लिये, मेरे द्वारा अथ श्री पद्मावती स्तोत्रम्-- श्रीमद्गीर्वाण चक्रस्फुटमकुटतटी, दिव्यमाणिक्यमाला । ज्योति ाला कराला, स्फुरति मुकुरिका, घृष्टपादारविंदे ॥ याघ्रोरुल्का सहस्त्रज्वलदनल शिरषा, लोलपाशांकुशाढये । ऑ क्रौ ह्रीं मंत्ररुपे, क्षपितकलिमले, रक्ष मां देवि पद्म ॥१॥ व्याख्या --रक्ष पालय हे देवि पद्मावती शासन देवी । क, मा स्तुतिकर्तार, कोदृशे देवि, श्रीमद्भि पादारविदे श्री विद्यते येषाम् ते श्रीमत श्रीमतोगीर्वाण श्रीमद्गीर्वाण तेपा चक्र श्रीमद्गीर्वाण चक्र स्फुटितानि च तानि मुकुटानि च स्फुटमुकुटतटि। दिव्यानि प्रधानानि माणिक्यानि दिव्यमाणिक्यानि तेपा माला, दिव्यमाणिवयमाला। श्रीमद्गीर्वाण दिव्यमाणिक्यमाला। तस्य ज्योतिस्तेजस्तस्या ज्वाला । श्रीमद्गीर्वाण० माणिक्यमाला ज्योतिर्वाला तया कराल स्फुरितमुकुरिका श्रीमद्गीर्वाण करालस्फुरितमुकुरिका श्रीमद्गीर्वाण स्फुरितमुकुरिका । श्रीमद्गीर्वाण मुकुरिकाया पृष्टपादावेवारविन्दे यस्या सा तस्या सबोधन श्रामद्गीर्वाण० घृष्टपादारविन्दे पद्मा त्रिदशनिकुरवस्पष्टकिरीट पर्यस्त-तटस्थ-प्रधानरत्नमाला । दीप्तिशिखारौद्रस्फूर्जमानमुकुरिकाया
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
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