SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लघुविद्यानुवाद ४०३ है तो उसको भी इस वृत्ति से बोध हो सकता है। इसलिये हमारा उभय प्रयोजन है, इस कारण से हमारे द्वारा वृत्ति का करना प्रयोजन भी देखा जाता है । -विशेषार्थमाह श्री मद्गीर्वाणेति न तु च महत 'सूरे' तपस्विनोऽस्मिन् स्तव करणे कथ सम्यक्त्व जातेती प्रश्ने प्रत्युत्तर माह मोक्ष मार्ग प्रत्युद्यतस्य सम्यक्त्वस्य सहितस्य तपस्विनो मुने. सम्यक्वधनिका जातास्तव प्रतिमोक्षमार्गार्हत्वेन तस्य समुद्यमो न तस्य तु निच्चमत्कारी चिन्तापेक्षा श्रावकाणा यथोपदिष्ट यथाभिलषित-समीहितसिध्यर्थमन्त्र लौकिक मिथ्यात्वाऽपोहार्थ जिन धर्म-समुद्योतनार्थ श्रावकाभिप्रायेव पक्षिणामपि समुत्पत्यनतर दृष्टनात् सम्यक्त्वाना यथालब्ध स्वकीयनियोगी सेवावसराणा सत्यकार्यधत्व समुचित (न) तु इय देवी मोक्षमार्ग फलदायिकेति बुद्धयासत्कारार्हत्व तस्य तु व्यवहारविधौ सोपदेशदातृत्वात् यदा श्रावका कोऽपि पृच्छति मम कुटबादौ कोपि भुतै. समायाति तस्य निराकरणम् कि तदा पच नमस्कार सेवन तथा तीर्थकर यक्षयक्षिनॉ परिहार निमित सेवन विघान समुपदिशत्येव न तु स्वयमाराधक. 'स्यात्' न तु विराधक 'स्यात्' कथं पार्श्व प्रतिमादेरुपरि दृष्टत्वादनादि--निधनरचनेयमिति तथाचरणादौ इष्टत्वादपि चितामण्यादे. कथ निरपेक्षत्व यथा सर्वेषा सहिताशास्त्राणा प्रतिष्ठाशास्त्रारणा शिल्पशास्त्राणा प्रायश्चितशास्त्राणाम् नादरो भवति ? तदसत्कारे तथा यशस्तिलक देवसेन कृत भाव सग्रह वामदेव वृत्त वसुनदी श्रावकाचार महापुराण लघुसकल कीर्ति आदि शास्त्रारणा भट्टारक शुभचन्द्र कृत शास्त्राणा व्रत कथा कोशादीनाम नादरो भवति तेन सत्कारार्हत्त्व समुचित एतदसत्कारे प्रथमानुयोगोपदिष्ट दान फलादिकारसापेक्ष्यपद्मावत्यादि कथा भगोपि यथास्यात्रथा समतभद्र-पात्रकेशरी-अकलकाद्युपसर्ग विघ्नमपि स्यादन्तमेव तथा सकलकीतिना श्रीपालस्त्रीशील रक्षार्थ सर्वा जिनशासन रक्षिका नानाविधोपसमें रक्षार्थ सर्वा जिनशासनरक्षिका नानाविधोपसर्ग कुर्वत्य धवल प्रति 'समागता' एतत्कथानक 'मुक्त' तदाय नृतमेव स्यात" तथा चाकृत्रिम चैत्यालय विन्यासे सर्वाह सनत्कुमार श्री देवी श्रुतदेवोत्यादि यक्षिणी यक्षक्रिया सोपि त्रिलोकसारे नेमिचन्द्र रक्त सोपि व्यलीक एव स्यादित्यत शतधा यक्ष मिथ्यादष्टीना जिनधर्म विराधकाना 'वाक्य' खण्डन दृष्ट्वानादिकालीन यक्षिणी यक्ष विन्यास तथाराधनविधान 'योग्यमेव' सेव्य न तु त्याज्य तथा परमार्थ देवता जिनदेव स सत्यदेवः क्रियादेवश्च चक्रछत्रादिक यक्षविधान व्यवहारदेवता रक्षादेवता कुलदेवता पद्मावत्यादिरित्यादि कथनमपि पचघाविवर्ण चारेप दृष्ट कथमुदितो भास्करोप्यनुदित समुदीर्यते ।।इति।। इस सस्कृत उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि शासन देवी-देवताओ को अहंन्त समान मानकर अभिलाषा से स्तवन पूजा आराधना की जायेगी तो अवश्य सम्यक्त्व की हानि होगा। वह
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy