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________________ ४०२ लघुविद्यानुवाद नववृत्ति प्रमाणस्य लोक प्रसिद्धस्य अस्य मत्रस्तोत्रस्यार्थ स्मरणलक्षण विद्यत एव स्व प्रयोजन । तथा पर प्रयोजनमपि विद्यत एव । यतस्ते केचित् भविष्यति मदतमा मतिपाठका येपामस्यापि वृत्ते सकाशात् बोधो भविष्यति । अत एव उभयप्रयोजनमपि सभवत्येव । तस्मात् वृत्तिकरणेऽस्माकम् प्रयोजनमपि विद्यत एव । तत्राद्य वृत्तमाह -१卐 . श्लोकार्थ हिन्दी भाषा मंगलाचरण पुरुषो मे उत्तम श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र देव को मै (पार्श्वमणि आचार्य) नमस्कार करके, ___ अच्छी तरह से पद्मावत्यष्टक की वृत्ति (टीका) को कहु गा। टीकार्थ-यह क्या है ? जो आपके द्वारा पद्मावति अष्टक की वृत्ति देखी जा रही है, आप ___ तो विरत है मुनि है फिर आपके द्वारा पद्मावति सम्बन्धि अष्टक कैसे लिखा जा रहा है ? ऊपर प्रश्न का उत्तर आचार्य देते है, जो वितराग है, उन्ही भगवान् सर्वज्ञ, तीर्थकर देव का सर्व उपसर्ग दूर करने वाली है, और सबका कल्याण की हेतु है, पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के शासन की रक्षा करने वाली है, सम्पूर्ण जीवो के भय का निवारण करने मे परायण ऐसी यह अविरत कथा है, सम्यग्दर्शन से युक्त जिन मन्दिर मे जिन धर्म का प्रवर्तन करने वाली है, सम्पूर्ण तीन भूवन के पेट रूपी गडे को वर्तन (पूर्ण) करने वाली है। लोगो के मन को आनन्द देने वाली चौरासी हजार देवो के परिवार से वित है (सहित) है। जो एकावतारी है अब दूसरा भवन ही लेने वाली है, दूसरे ही भव से मोक्ष जाने वाली है श्री पार्श्वनाथ के चरणो की सतत् आराधना करने वाली है। ऐसी जो पद्मावती है उस सबधि अष्टक वृत्ति को आपके द्वारा दूषण दिया जा रहा है और हमको भी दोषी कह रहे हो। आपके द्वारा दूषण देना ठीक नही, इसलिये कोई दोप नही ऐसा कहता हूँ, मैं तो पूर्वाचार्यो के द्वारा कहा हुआ ही कह रहा हु, और यह स्तोत्र भी पूर्वाचार्यो द्वारा ही वर्णित है, उसको ही हम वृत्ति रूप विस्तार लिख रहे है, यही हमारा प्रयोजन है । प्रयोजन तीन प्रकार का है(१) पहला प्रयोजन प्रतिवादी रूपी हाथियो का विदारण करने मे सिह के समान है, सत् हृदय से यही प्रयोजन है। (२) दुसरा प्रयोजन इस मन्त्र स्तोत्र की नई वृत्ति बनाना। (३) दोनो हो प्रकार प्रयोजन उभय स्तोत्र का अर्थ स्मरण लक्षण ही है जिसका ऐसा ही स्व का प्रयोजन है। इसमे पर का प्रयोजन भी देखा जाता है, कोई मद बुद्धि वाला शिष्य
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
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