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________________ जिस समय लोगो को यत्र मत्रो की आवश्यकता पडी वैसे ही प्राचार्यों मुनियो भट्टारको तथा श्रावको ने इसका प्रयोग किया। किन्तु वर्तमान मे कुछ पथवादी तथा सुधारवादी विद्वान लोगो का उनका अलग ही स्वतन्त्र ही मत है। कि जेन परम्परा मे मत्र, यत्र, तत्रो का स्थान नही है। लेकिन विषय पर गौर करे तो पाया जायेगा, कि मूडवद्री का शास्त्र भण्डार, पारा सिद्धान्त भवन, दिगम्बर जैन मन्दिर लणकरणजी पाण्ड्या (जयपुर) ग्रथालय तया और भी अनेको ग्रथालयो मे यत्र, मत्र, तत्र से सम्बन्धित काफी सख्या मे हस्तलिखित ग्रथ भरे पडे है, क्या यह सब झठे है। विद्वानो का इस ओर ध्यान नही है। अनेको ग्रथों को तो दीमक लग रही है। कागज गलकर नष्ट हो गया है। अगर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो यत्र, मत्र, तत्र सम्बन्धी हमारा सभी साहित्य नष्ट हो जावेगा । इसलिये इस विषय के शास्त्रो की ऐसी जीर्ण-क्षीण हालत देखकर मेरे मन में यह भावना जागृत हुयी कि इन ग्रथो का उद्धार होना चाहिये । इसलिये मैंने यह बोडा उठाया और कार्य कर रहा हूँ। लोगो के यह भी विचार है कि साधु होने के बाद यह नही लिखना चाहिये । यह सब नही करना चाहिये। तो अरे, भाईयो तनिक यह भी तो विचार करो कि क्या किसी विद्वान ने इस ओर ध्यान दिया है अथवा कार्य किया है ? जब किसी ने ध्यान नहीं दिया तो हमको यह करना पडा । कार्य करने वाले को निन्दा करना गालियाँ देना, अपवाद करना सहज है लेकिन सभी बातो को सहन करते हुये कार्य करके दिखाना बहुत ही कठिन कार्य है। हमारे समन्वय वाणी पत्र के सम्पादक वर्ग, धर्म मगल पत्र के सम्पादक वर्ग, तीर्थकर पत्र के सम्पादक वर्ग आदि पत्रो के सम्पादक वर्गों का इस ग्रथ के प्रचार-प्रसार मे बहुत ही अच्छा सहयोग रहा जिससे यह अथ जन-२ का प्रिय बना और बनता जा रहा है । इसलिये मैं बहुत बडा उपकार मानता हूँ। आप लोगो ने अपने-अपने पत्रो के माध्यम से मेरे इस ग्रथ को सर्वजन प्रिय बना दिया। आगे भी आप ग्रथ की खुब निन्दा करे, अपवाद करे, ताकि प्रसिद्धि को प्राप्त हो । अरे, सीताजी पर दुर्जन लोग यदि अपवाद नहीं लगाते ओर नाही अग्नि परीक्षा होती तो सीताजी को इतनी प्रसिद्धि कैसे मिल पाती। आप लोग तो खलनायक का पार्ट अदा कर रहे है । आप हमेशा सज्जनो की निन्दा करने का कार्य ही करते रहे, ताकि जल्दी ही आप लोगो की दुर्जनता यथास्थान को प्राप्त कर लेवे। आपके सभी के गलत प्रचार से क्या बुरा असर पड़ा यह आप स्वय ही देखिये कि ग्रथ की माग अधिक होने से इस ग्रथ का पुन प्रकाशन हो रहा है और ग्रथमाला समिति को ग्रथ के प्रचारप्रसार मे धनराशि खर्च नही करनी पडी। अनेको लोग इस विषय पर चर्चा करने मेरे सघ मे दर्शन करने आते है और प्रभावित होकर चले जाते है । वास्तव मे कुछ लोगो को छोडकर सभी इस ग्रथ की प्रशसा करते है, और अनेको लोगो ने इस ग्रथ के माध्यम से लाभ प्राप्त किया है।
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
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