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निकट भष्य, अचिर कल्याणेच्छु समझकर निश्चित शुभ तिथ्यादि पर जिनदीक्षा प्रदान करते हैं जिसकी वर्तमान में प्रचलित विधि इस प्रकार है । (मुनि यति पद प्रतिष्ठा विधि
गाथा सिद्धयोगिबृहक्तिपूर्वक लिङ्गमयंताम् । लुन्चाख्यानाग्न्यपिच्छात्म क्षम्यतां सिद्धभक्तिः ॥
यह रिसखभक्ति और बृहत्योगिभक्ति पूर्पक लोचकरण, नापकरण, नग्नता प्रदान और पिच्प्रदान रूप लिंग अर्पण करें और सिखभक्ति पढ़कर लिंगार्पणविधान को समाप्त करें ।
दीक्षादानोत्तरकर्त्तव्यम्व्रतसमितीन्द्रियरोधाः पंच पृथक् क्षितिशयो रदाधर्षः । स्थितिसकृदशने लुञ्चावश्यकषट्के विचेलताऽस्नानम् ॥ इत्यष्टाविंशतिं मूलगुणान् निक्षिप्य दीक्षिते । शंशेपेण सलीनालीन् नी मातातिया ॥
उस दीक्षित में पांच व्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिरोध, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन, सकृद्भुक्ति, लोच, छह आवश्यक, अचेलता और अस्नान इन अट्ठाईस मूल गुणों को, संक्षेप से चौरासी लाख गुणों तथा अठारह हजार शीलों के साथ माथ स्थापित कर दीक्षादाता आचार्य उसी दिन व्रतारोपण प्रतिक्रमण करे । यदि लग्न ठीक न हो तो कुछ दिन ठहर कर भी प्रतिक्रमण कर सकता है ।
२६-अन्यदातनलोचक्रियालोचो द्वित्रिचतुर्मासैर्वरो मध्योऽधमः क्रमात् । लघुप्रारभक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः।
दूसरे, तीसरे या चौथे महीने में लोच करना चाहिए । दो महीने से लोच करना उत्कृष्ट, तीन महीने से मध्यम और चार महीने से उपवास सहित लोच करना चाहिए ।
अथ लोच प्रतिष्ठापनक्रियाय सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोमि('तवसिद्धे' इत्यादि) अथ लोच प्रतिष्ठापनक्रियायां योगिभक्तिकायोत्सर्ग करोमि
NOTERNAL 94 TVBIHITS
THIVARIA