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________________ पडिलेहणेण पडिले हिज्ज चिन्हं च होइ सग पक्खे। विस्सासिवं च लिंगं संजद पडिवदा चैव ॥१७॥ भ. अ. तु जब यति बैठते हैं खड़े होते हैं, शयन करते हैं, अपने हाथ पांव पसारते हे संकोच लेते हैं. जब वे उत्तानशयन करते हैं कवंट बदलते हैं, तब वे अपना शरीर पिच्छिका में परिमार्जन स्वच्छ करते हैं। पिच्छिका से ही जीव दया पाली जाती है, का लागों में यति विषयक विश्वास उत्पन्न करने का चिन्ह है तथा पिच्छिका धारण मनं मुनिराज प्राचीन मुनियों के प्रतिनिधि स्वरूप हैं ऐसा सिद्ध होता है। अतः निष्कर्ष पिच्छी धारण करना जिनागम सिद्ध है इससे विरुद्ध पिच्छी को अम्वीकार करने वाला मूढ़ चारित्रवान यति अवन्दनीय एवं संघ बाह्य है ॥ ७९ ॥ इय भबाहु सूरी, परमत्थ परूवणो महतिओ । जेसिं होइ समत्थो, ते धण्णा पुण्ण पुण्णाय ॥ ८० ॥ " इति भबाहु स्वामि कृत जिन क्रियासारः समाप्तः अन्वयार्थ - ( इय) इस प्रकार जो (भदबाह सूरी ) भद्रबाहु आचार्यकृत ( परमत्थ) परमार्थ का (परूवणां निरूपण करने वालं ( महातेओ) महान तेजस्वी हैं। वे कहते हैं (जेसिं) जिसमें (समत्थो होई) ऐसा सामर्थ्य है (ते) से ( धण्णा) धन्य है, (पुण्ण पुण्णाय) पुर्णत: पुण्यवन्त हैं ॥ ८० ॥ " अर्थ - इस प्रकार महा तेजस्वी परमार्थ का निरूपण करने वाले भद्रबाहु आचार्य कहते हैं कि जिसमें ऐसा सामर्थ्य है वे धन्य हैं एवं पुण्यवन्त हैं ||८० भावार्थ - उपरोक्त जिन प्ररूपित मार्ग का निरूपण कर संयम प्रतिष्ठापना के प्रकरण का उपसंहार करते हुए महान तपरूपी तेज को धारण करने वाले महा तेजस्वी, परमार्थ- परम यानि संयम, चारित्र एवं सर्वोत्तम अर्थ कार्य का निरूपण करने वाले आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि जिन जीवों में संयम, चारित्र आदि में स्वयं स्थापित होने और स्थापित करने की सामर्थ्य शक्ति है वे जीव धन्य हैं अर्थात् स्तुति के पात्र हैं, प्रशंसा करने योग्य हैं तथा भाग्यशाली हैं एवं वे ही सम्पूर्ण भरपूर सुकृत से परिपूर्ण हैं |४८० || इस प्रकार भद्रबाहु स्वामी के द्वारा कथित क्रियासार ग्रन्थ समाप्त हुआ "इति श्री " [ 83 }
SR No.090258
Book TitleKriyasara
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorSurdev Sagar
PublisherSandip Shah Jaipur
Publication Year1997
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size2 MB
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