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________________ निः पिच्छ अमान्यः जो सवणो णड पिच्छं, गिण्हदि शिंदेदि मूढ़ चारित्तो। सो सवण संघ वन्झो,अवंद णिजो सदा होदि ॥७९॥ अन्वयार्थ-(ओ सवणो) जो श्रमण !साधु (पिच्छ) पिछी को (णहु गिणहदि) ग्रहण नहीं करता है बल्कि (णिंदेदि) निन्दा करता है (मढ़ चारित्तो) वह मूढ चारित्री है (सो) यह (सवण संघ) श्रमण संघ से (यज्झो) वयं है (सदा) सदा {आदणिज्जो) अवन्दनीय (होदि) होता है ७९ ॥ अर्थ-जो श्रमण-साधु पिच्छी को ग्रहण- स्वीकार नहीं करता हैं अपितु निन्दा करता है यह भूद चारित्री अमग संघ से बाह-परिहार करने योग्य तथा सदा अवनदनीय वन्दना--प्रतिबन्दना के अयोग्य है ।०९॥ भावार्थ-जो यति न तो यत्तित्व का चिन्ह मयूर पिच्छी ग्रहण करता हैं वरन् निंदा करता हैं ऐसा यति मोह को उत्पन्न करने वाला मूढ़ चारित्र को धारण करने वाला है, ऐसे शिष्य को आचार्य श्री ने सम्पूर्ण संघ के द्वारा त्याज्य परिहार करने योग्य माना हैं तथा अन्य यति-सम्पूर्ण संघ के द्वारा बन्दना आदि के अयोग्य माना है। यथा: गोपुच्छकः श्वेतभासा, द्राविडो यापनीयकः। निष्पिच्छश्चेति पंचैते, जैनाभासःप्रकीर्तिता ॥१०॥ नी. स. अर्थात् गाय के बहाड़े की पूंछ के बाल को पिच्छी धरण करने वाले. श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय, पिच्छी रहित-पिछी को स्वीकार न करने वाले इस प्रकार इन्द्र नन्दि आचार्य ने पांच प्रकार के जनाभास-जैन धर्म के अपराधी माना है। इसी से आचार्य प्रकर भद्रबाहु ने ऐसे यत्तियों के लिए अवन्दनीय बन्दना के अयोग्य स्वीकार किया है क्योंकि पिच्छी धूली और पसेव से मैली नहीं होती है, कोमल-मृदु होती है, कड़ी नहीं होती है, अर्थात् नमनशील एवं हल्की होती है। इस प्रकार ऐसे गुणों से युक्त पिच्छो की प्रशंसा साधुजन करते हैं। यधा: रयसेयाणमगहणं मछव सुकुमालदा लहुतं च। जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥१८ ।। भ. आ. ठपर्युक्त पंचगुण संयुक्त पिच्छी होने से यति गणों के लिए जीव दया पालन का एक मात्र साधन है। इरियादाण णिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे। उव्यत्तण-परिवत्तण पसारणा उंटणामस्से ॥१६।। 1 82 PM
SR No.090258
Book TitleKriyasara
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorSurdev Sagar
PublisherSandip Shah Jaipur
Publication Year1997
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size2 MB
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