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देववन्दना प्रयोगानुपूर्वी
स्फुरायमान किरणों से
यह आपका रूप, जैन
प्रवण मुकुटों की पंक्तियों में जटित मणियों की आपके दोनों चरण कमल लिंगित हैं ऐसा वह मत से भिन्न अन्य मिथ्या तीर्थों से भी गुरु रूप राग द्वेष मोहादि दोषों के प्रादुर्भाव से अन्धे हुए सारे जगत को पवित्र करे ||३१-३५|| अन्तर' चैत्य के सन्मुख बैठकर नीचे लिखा आलोचना पाठ
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आलोचना या श्रंचलिका
इच्छामि भंते ! चेहयभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । अहलोय - तिरियलोय - उड्ढलोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेयाणि ताणि सव्वाणि तीसुवि लोएस भवणवासिय-वाणविंतर - जोइसिय- कप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुफ्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण, णिच्चकालं अंचति पुज्जति वदति णमंसंति अहमवि इह संतो तत्थ संताई णिच्चकालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि मंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ ।
अर्थ - हे भगवन् ! चैत्यभक्ति और तत् सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूं। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक में जो कृत्रिम और अकृत्रिम जितनी प्रतिमाएँ हैं उन सबको तीन लोक में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव अपने-अपने परिवार सहित दिव्य गंध से, दिव्य पुष्पों से, दिव्य धूप से, दिव्य चूर्ण से, दिव्य सुगंधि से और दिव्य अभिषेक से सदा हैं पूजते हैं वन्दते हैं नमस्कार करते हैं मैं भी यहीं पर बैठा हुआ वहाँ स्थित प्रतिमाओं को सदा अर्चता हूँ पूजता हूँ
१- आलोच्य
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