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क्रिया-कलापे
तदेतदमरेश्वरप्रचलमौलिमालामणिस्फुरत्किरणचुंबनीयचरणारविन्दद्वयम् । पुनातु भमवज्जिनेन्द्र ! तव रूपमन्धीकृतं जगत् सकलमन्यतीर्थगुरुरूपदोषोदयैः ॥३५॥
अर्थ हे भगवन् जिनेन्द्र ! सम्पूर्ण कोप रूप अग्नियों के क्षय हो जाने से जिसमें नयन रूप उत्पलपत्र कुछ-कुछ लाल हैं या लालिमा रहित हैं, वीतरागता की परम प्रकर्षता के होने से जो कटाक्ष रूप वाणों के छोड़ने से रहित है, विषाद और मद की हानि होने से सदा प्रफुल्लित है ऐसा आपके यथाजात रूप में आपका मुख आपके हृदय की आत्यंतिक शुद्धि को कह रहा है । हे भगवन् ! आपका रूप राग के आवेग के उदय के नष्ट हो जाने से श्राभरण रहित होने पर भी भासुर रूप है, आपका स्वाभाविक रूप निर्दोष है इसलिये वस्त्र रहित नग्न होने पर भी मनोहर है, आपका यह रूप न औरों के द्वारा हिंस्य है और न औरों का हिंसक है इसलिये आयुध रहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वरूप है, तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनाओं के विनाश हो जाने से आहार न करते हुए भी तृप्तिमान है। आपके नख और केश नहीं बढ़ते हैं वे उतने ही हर समय रहते हैं जितने केवल ज्ञान की उत्पत्ति के समय होते हैं। रजोमल का स्पर्श भी आपके नहीं है, आपके रूप में विकसित कमल और चन्दन के सदृश दिव्यगंध का उदय है। आपका यह रूप सूर्य, चन्द्रमा, वन आदि एक सौ आठ प्रशस्त-चिन्हों से अलंकृत है तथा हजारों सूर्यों के समान भासुर होकर भी नेत्रों को अत्यन्त प्रिय है। आपके रूप को देखकर मोक्ष के परिपंथो शत्रु ऐसे प्रवल राग मोह आदि दोषों से कलंकित मनवाला जन समुदाय अतिशय शुद्ध हो जाता है, जो जगत् में देखने वालों को चारों दिशाओं में सदा सन्मुख ही शरत्कालीन उदयापन्न निर्मल चन्द्रमा के समान दीखता है, देवेन्द्रों के नमस्कार
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