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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रियाकलापे wwwwwwwwwwwwww क्षान्त्यावर्तसहस्रं सर्वदया-विकचकुसुमविलसल्लतिकम् दुःसहपरीषहाख्यद्रुततररंगत्तरंगभंगुरनिकरम् ।। २६ ॥ व्यपगतकषायफेनं रागद्वेषादिदोष-शैवलरहितम् । अत्यस्तमेह-कर्दममतिदूरनिरस्तमरण-मकरप्रकरम् ॥२७॥ ऋषिवृषभस्तुतिमंद्रोद्रेकितनिर्घोष-विविधविहगध्वानम् । विविधतपोनिधि-पुलिनं सास्त्रवसंवरणनिर्जरानिस्रवणम् ॥२८॥ गणधरचक्रधरेन्द्रप्रभृतिमहाभव्यपुंडरीकैः पुरुषः । बहुमिः स्नातं भक्त्या कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम् ।।२९।। अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि दुस्तरसमस्तदुरितं दूरं । व्यवहरतु परमपावनमनन्यजय्यस्वभावभावगभीरम् ॥ ३० ॥ अर्थ-जो तीन भुवन में निवास करने वाले भव्यजन रूप तीर्थ यात्रियों के पाप कर्म के प्रक्षालन करने में अद्वितीय कारण है, जिसने लौकिक मिथ्या तीर्थो का अतिक्रमण-उल्लंघन कर दिया है, जिसमें लोक और अलोक का सच्चा स्वरूप समझाने में समर्थ ऐसे दिव्य केवल ज्ञान या मतिश्रुतादि ज्ञान हो प्रतिदिन बहते हुये प्रवाह हैं, व्रत और शील ही जिसके स्वच्छ और विशाल दो तट हैं, जो शुक्ल ध्यान रूप स्थिर स्थित ऐसे दीप्त राजहंसों कर शोभित है, जिसमें निरंतर स्वाध्याय पाठ ही मनोज्ञ नाद (शब्द) हैं, जो चौरासी लाख गुण, पंच समिति और तीन गुप्ति रूप सिकता ( बालू ) से सुशोभित है, जिसमें क्षमागुण ही हजारों आवर्त-लहरें हैं, सम्पूर्ण प्राणियों पर दयाभाव हो खिले हुए पुष्पों से शोभायमान बेल है, दुःसह क्षुधादि परीषह ही शीघ्र इधर-उधर फैलती हुई चंचल तरंगों का समुदाय है, कषाय रूप फेन जिसमें नष्ट हो गया है, जो राग-द्वेषादि दोष रूप शैवाल (कांजी ) से रहित है, जिसमें मोहरूप कीचड़ का अभाव है, मरण रूप मकरों का समूह नष्ट हो चुका है, ऋषिश्रेष्ठ गणधरदेवादिकों कर For Private And Personal Use Only
SR No.090257
Book TitleKriya Kalap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Shastri
PublisherPannalal Shastri
Publication Year1993
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size15 MB
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