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देववन्दना-प्रयोगानुपूर्वी।
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ज्योतिषामथ लोकस्य भूतयेऽद्भुतसम्पदः। गृहाः स्वयंभुवः सन्ति विमानेषु नमामि तान् ॥ २० ॥
अर्थ-अनन्तर ज्योतिषी देवों के विमानों में अद्भुत सम्पत्ति धारी अहंतों के जो शाश्वत गृह हैं उनको मैं विभूति के निमित्त नमस्कार करता हूं ॥ २० ॥
वन्दे सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम् । याः क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चाः सिद्धिलब्धये ॥ २१ ॥
अर्थ-जो देवों के मुकुट के अग्र भाग में लगी हुई मणियों की कान्ति से अभिषेक को चरणों द्वारा सेवन करती हैं अर्थात् जिनके चरणों में वैमानिक देव सिर झुकाते हैं उन वैमानिक देवों के विमान संबन्धी प्रतिमाओं को मुक्ति की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ ॥२१॥
इति स्तुतिपथातीतश्रीभृतामहतां मम ।। चैत्यानामस्तु संकीर्तिः सवोस्रवनिरोधिनी॥ २२ ॥
अर्थ-इस प्रकार स्तुति के मार्ग को अतिक्रमण करने वाली अर्थात् जिसकी स्तुति इन्द्रादिक देव भी नहीं कर सकते ऐसी अंतरंग
और बहिरंग लक्ष्मी को धारण करने वाले अहंतों के चैत्यों की स्तुति मेरे सम्पूर्ण प्रास्रवों को रोकने वाली होवे ॥ २२ ।।
अर्हन्महानदस्य त्रिभुवनभव्यजनतीर्थयात्रिकदुरितप्रक्षालनैककारणमतिलौकिककुहकतीर्थमुत्तमतीर्थम् ॥ २३ ॥ लोकालोकसुतत्वप्रत्यवबोधनसमर्थदिव्यज्ञानप्रत्यहवहत्प्रवाहं व्रतशीलामल विशालकूलद्वितयम् ॥२४॥ शुक्लभ्यानस्तिमितस्थितराजद्राजहंसराजितमसकृत् । स्वाध्यायमंद्रघोष नानागुणसमितिगुप्ति-सिकतासुभगम ॥२५॥
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