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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देववन्दना-प्रयोगानुपूर्वी। अर्थ-तीन जगत में विद्यमान प्रचुरप्रभा से समन्वित मन्दिरों में स्थिति, मनुष्यों और देवों द्वारा पूज्य, प्रचुरतर प्रभायुक्त कृत्रिम और अकृत्रिम जिनेन्द्र के प्रतिबिंबों को प्रणमन करता हूँ ।।११।। द्युतिमंडलभासुराङ्गयष्टीः प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्तमानाम् । भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता वपुषा प्राञ्जलिरस्मि वन्दमानः ॥१२॥ अर्थ-जो तीन भवन में विद्यमान हैं जिनकी शरीर-यष्टि प्रभामंडल से दैदीप्यमान है ऐसी अहंतों की अनुपम प्रतिमाओं को वन्दना करने वाला मैं पुण्य की प्राप्ति के निमित्त शरीर से अंजलि बांधता हूँ अर्थात् ऐसी प्रतिमाओं को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ ॥१२॥ विगतायुधविक्रियाविभूषाः प्रकृतिस्थाः कृतिनां जिनेश्वराणाम् । प्रतिमाः प्रतिमागृहेषु कात्याप्रतिमाः कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे ॥१३॥ अर्थ-जो आयुध, विकार, आभूषणों से रहित हैं। अपने ही स्वभाव में स्थिति हैं तथा कान्ति कर अतुल्य हैं ऐसी कृती अर्थात् कृतकृत्य जिनेश्वरों की प्रतिमागृहों में विराजमान प्रतिमाओं को पाप की शान्ति के लिए वन्दता हूँ ।।१३।। कथयति कषायमुक्तिलक्ष्मीं परया शान्ततया भवान्तकानाम् । प्रणमाम्यभिरूपमूर्तिमंति प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम् ॥१४॥ अर्थ-उत्कृष्ट शान्तता युक्त होने से कषाय का अभावरूप लक्ष्मी को कहने वाली, जिनेश्वर का जैसा रूप है वैसी मूर्तिमती, ऐसी संसार का नाश कर देने वाले जिनेश्वरों की मूर्तियों को प्रात्मपरिणामों की निर्मलता होने के लिए नमस्कार करता हूँ ॥१४॥ यदिदं मम सिद्धभक्तिनीतं सुकृतं दुष्कृतवर्मरोधि तेन । पटुना जिनधर्म एव भक्तिर्भवताजन्मनि जन्मनि स्थिरा मे।।१५।। For Private And Personal Use Only
SR No.090257
Book TitleKriya Kalap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Shastri
PublisherPannalal Shastri
Publication Year1993
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size15 MB
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