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क्रियाकलापे
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कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ताः परस्परवैरिणो विगत कलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः ॥ १ ॥ अर्थ- जो सुवर्णमय कमलों पर सामन्य मनुष्यों में न पाये जाने वाले और चरण क्रम के संचार से रहित प्रचार -- गमन से शोभायमान हैं, देवों के मुकुटों में लगी हुईं छाया-मणियों से निकलती हुई प्रभा से आलिंगित - स्पर्शित हैं ऐसे जिनके चरणों में आकर कलुष हृदय वाले, अहंकार से युक्त, परस्पर वैरी ऐसे सर्प नौला आदि जीव अपने अपने स्वाभाविक क्रूर स्वभाव को छोड़कर विश्वास को प्राप्त होते हैं वे भगवान् जिनेन्द्र जयवंत रहें || १ |
तदनु जयति श्रेयान् धर्मः प्रवृद्धमहोदयः कुगति- विपथ-क्लेशाद्योऽसौ विपाशयति प्रजाः । परिणतनयस्याङ्गीभावाद्विविक्तविकल्पितं भवतु भवतस्त्रात त्रेधा जिनेन्द्रवचोऽमृतम् ||२|| अर्थ - अनन्तर उत्तमतमादिलक्षण श्रेष्ठ धर्म जयवंत हो,
जिससे प्राणियों के स्वर्गादि पदों की प्राप्ति वृद्धि को प्राप्त होती है । जो संसारी जीवों को नरकादि कुगतियों से मिथ्यादर्शन आदि कुमार्गों से और उनसे जयमान क्लेशों से छुड़ाता है। तथा द्रव्यार्थिक नय को गौणकर पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता लेकर अङ्ग पूर्व आदि रूप से रचा गया अथवा पूर्वापर दोषरहित रचा गया ऐसा उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप से अथवा अङ्ग पूर्व और अंगबाह्य रूप से तीन प्रकार का जिनेन्द्र का वचन रूप अमृत संसार से रक्षा करे ||२||
तदनु जयताज्जैनी वित्तिः प्रभंगतरंगिणी प्रभवविगमधौव्यद्रव्य स्वभावविभाविनी । निरुपमसुखस्येदं द्वारं विघट्य निरर्गलं विगतरजसं मोक्षं देयानिरत्ययमव्ययम् ॥३॥
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