________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१०
www.kobatirth.org
क्रियाकलापे
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चार- परसवण - खेल - सिंहाण - वियडिपद्दद्वावणियाए, जे जीवा एइंदिया वा, वे इंदिया वा, ते इंदिया वा चउरिंदिया वा पंचिंदिया वा, गोल्लिदा वा, पेल्लिदा वा, संघट्टिदा वा संघादिदा वा परिदाविदा वा किरिच्छिदा वा, लेस्सिदावा, छिंदिदावा, भिंदिदा वा, ठाणदो वा, ठाणचकमणदो वा, तस्स उत्तरगुणं, तस्स पायच्छित्तकरणं, तस्स विसोहिकरणं, जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोकारं पज्जुवासं करोमि ताव कार्य पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि ।
हे भगवन् ! ईर्यापथसम्बन्धी प्राणियों की विराधना होने पर किये हुये दोषों का निराकरण करता हूँ। मेरे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति से रहित होते हुए, शीघ्र चलने में, प्रथम ही स्वस्थान से निकलने में, ठहरने में, गमन करने में, सिकोड़ने पसारने रूप पैरों के के हिलाने चलाने में, श्वासोच्छ्वास लेने में अथवा दो इन्द्रिय आदि प्राणों के ऊपर प्रमाद पूर्वक चलने में, बीजों के ऊपर होकर चलने में, हरितकाय पर होकर चलने में, मल-मूत्र के प्रक्षेपण करने, थूकने, श्लेष्म-कफ डालने, कमण्डलु आदि उपकरण के रखन में जो मैंने एकेन्द्रिय जीवों को, दो इन्द्रिय जीवों को, तीन इन्द्रिय जीवों को, चार इन्द्रिय जीवों को, तथा पंचेन्द्रिय जीवों को, अपने अपने स्थान पर जाते हुए को रोका हो, अपने इष्ट स्थान से उठाकर अन्य स्थान में क्षेपण किया हो, परस्पर में संघट्टन पीड़ा पहुँचाई हो, उनका एक जगह पुञ्ज किया हो, मारा हो, सन्ताप पहुंचाया हो, खण्ड खण्ड किया हो, मूर्छित ( बेहोश ) किया हो, कतरा हो, विदारा हो, ये जीव अपने स्थान में ही स्थित हों अथवा अपने स्थान से दूसरे स्थान को जाते हों उस समय इनको उक्त प्रकार से उक्त स्थानों में विराधना की हो तो जब तक मैं भगवत् अतो को-प्रतिक्रमण का उत्तर गुण स्वरूप अर्थात् किये हुये
For Private And Personal Use Only