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देववन्दनादि-प्रकरणम्
आवर्त कर शिर झुकाना और अन्त में भी तीन श्रावर्त कर शिर काना एवं एक कायोत्सर्ग के प्रति चार शिरोनमन होते हैं ॥१५॥ चैत्यभक्ति आदि में दूसरी तरह से भी श्रावर्त होते हैं सो दिखाते हैं
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प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकशचरेत् । श्रीनावर्तान् शिरखैकं तदाधिक्यं न दुष्यति ॥ १६ ॥ अर्थात् —- चैत्यभक्त्यादि के करते समय हर एक प्रदक्षिणा में एक एक दिशा में तीन तीन श्रावर्त और एक एक शिरोनमन करे । भावार्थएक प्रदक्षिणा देने में चारों दिशाओं में बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं इसी तरह दूसरी तीसरी प्रदक्षिणा में तीन तीन आवर्त और चार चार शिरोनमन होते हैं एवं ये श्रावर्त और शिरोनमन पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक हो जाते हैं सो दोष के लिए नहीं हैं ॥ १६ ॥
नति
द्वे साम्यस्य स्तुतेश्चादौ शरीरनमनान्नती । वन्दनाद्यन्तयोः कैश्चिनिविश्य नमनान्मते ॥ १७॥
अर्थात- सामायिकदण्डक और स्तुतिदण्डक के पहले भूमिस्पर्श रूप पंचांग प्रणाम करने से दो नति की जाती हैं । कोई-कोई श्राचार्य वन्दना के पहले और पीछे बैठकर प्रणाम करने से दो नती मानते हैं । भावार्थ – सामायिकदण्डक के पहले और चतुर्विंशतिस्तवदण्डक के पहले दो वार पंचांग प्रणाम किया जाता है इसलिए दो नती होती हैं । स्वामि समन्तभद्रादिक का मत है कि वन्दना के प्रारंभ में एक और समाप्ति में एक ऐसे दो प्रणाम बैठकर करना चाहिए इसलिए उनके मत से ये दो नती होती हैं ||१७||
इति कृति-कर्म
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