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क्रिया-कलापे
है। उसी सामायिकदण्डक के पहले भूमिस्पर्शन रूप नमस्कार किया जाता है उसवक्त वन्दनामुद्रा की जाती है उस वन्दनामुद्रा को त्यागकर पुनः खड़ा होकर मुक्ताशुक्तिमुद्रा रूप दोनों हाथों को करके तीन वार घुमाना सो कायपरावर्तन है। "चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि" इत्यादि उच्चारण को छोड़कर "णमो अरहताणं" इत्यादि पाठ का उच्चारण करना सो वापरावर्तन है। इस तरह सामायिक दण्डक के पहले मन, काय और वचन परावर्तन रूप तीन आवर्त होते हैं। इसी तरह सामायिक दण्डक के अन्त में और स्तवदण्डक के आदि तथा अन्त में तीन तीन पावर्त यथायोग्य होते हैं। एवं सब मिलकर एक कायोत्सर्ग में बारह आवर्त होते हैं ॥१३॥
त्रिः सम्पुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत्पुनः । साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् ॥१४॥
अर्थात-मुकुलित दोनों हाथों को तीन वार घुमाकर सामायिकदण्डक पढ़े । पढ़ कर फिर तीन वार घुमावे। चतुर्विंशतिस्तवदण्डक में भी इसी तरह करे। अर्थात्-मुकुलित दोनों हाथों को तीन वार घुमा कर चतुर्विंशतिस्तव दण्डक पढ़े। पढ़कर फिर मुकुलित दोनों हाथों को तीन वार घुमावे ॥१४॥
शिर-लक्षणप्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिरः ।
यत्पाणिकुमलाङ्के तत् क्रियायां स्थाचतुः शिरः ॥१५॥ ' अर्थात्-तीन तीन आवर्त के प्रति जो भक्ति पूर्वक शिर झुकाना है वह चार शिर है। मुकुलित हाथ इसका चिन्ह है और ये चार शिर चत्यभक्त्यादि कायोत्सर्ग के समय किये जाते हैं। भावार्थ-सामायिक दण्डक के आदि में तीन आवर्त कर शिर झुकाना । अन्त में तीन भावर्त कर शिर झुकाना। इसी तरह स्तवदण्डक के आदि में तीन
चार शिर
किये जाते हैं।
आदि में तीन
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