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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देवबन्दनादि-प्रकरणम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुक्ताशुक्तिमुद्रामुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूर्परम् । ऊर्ध्वजानोः करद्वन्द्वं संलग्राङ्गुलि सूरिभिः ॥ ११ ॥ अर्थात- दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए के आचार्य मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं । भावार्थ- दोनों कुहनियों को पेट पर रखना और दोनों हाथों को जोड़ कर अंगुलियों को मिला लेना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है ||११|| मुद्राओं का प्रयोग निर्णय - स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे | योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनद्रा तनूज्झने ॥ १२ ॥ अर्थात् — "जयति भगवान" इत्यादि चैत्यवन्दना करते समय वन्दनामुद्रा का प्रयोग करना चाहिए । " णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिकदण्ड के समय और "थोस्सामि" इत्यादि चतुर्विंशतिस्तवदंडक के समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए । बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए तथा खड़े रह कर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ||१२|| आवर्त का स्वरूप- कथिता द्वादशावर्ता वर्वचनचेतसाम् । स्तव सामायिकाद्यन्त परावर्तनलक्षणाः ॥ १३ ॥ अर्थात् - मन, वचन और काय के पलटने को आवत कहते हैं । ये आवर्त बारह होते हैं । जो सामायिकदण्डक के प्रारम्भ और समाप्ति में तथा चतुर्विंशतिस्तवदण्डक के प्रारम्भ और समाप्ति के समय किये आते हैं। जैसे- "मो अरहंताणं” इत्यादि सामायिकदण्डक के पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनोविकल्प होता है उस मनोविकल्प को छोड़ कर सामायिकदंडक के उच्चारण के प्रति मन को लगाना सो मनः परावर्तन For Private And Personal Use Only
SR No.090257
Book TitleKriya Kalap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Shastri
PublisherPannalal Shastri
Publication Year1993
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size15 MB
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