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देवबन्दनादि-प्रकरणम्
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मुक्ताशुक्तिमुद्रामुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूर्परम् । ऊर्ध्वजानोः करद्वन्द्वं संलग्राङ्गुलि सूरिभिः ॥ ११ ॥
अर्थात- दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए के आचार्य मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं । भावार्थ- दोनों कुहनियों को पेट पर रखना और दोनों हाथों को जोड़ कर अंगुलियों को मिला लेना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है ||११|| मुद्राओं का प्रयोग निर्णय -
स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे | योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनद्रा तनूज्झने ॥ १२ ॥ अर्थात् — "जयति भगवान" इत्यादि चैत्यवन्दना करते समय वन्दनामुद्रा का प्रयोग करना चाहिए । " णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिकदण्ड के समय और "थोस्सामि" इत्यादि चतुर्विंशतिस्तवदंडक के समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए । बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए तथा खड़े रह कर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ||१२||
आवर्त का स्वरूप-
कथिता द्वादशावर्ता वर्वचनचेतसाम् ।
स्तव सामायिकाद्यन्त परावर्तनलक्षणाः ॥ १३ ॥
अर्थात् - मन, वचन और काय के पलटने को आवत कहते हैं । ये आवर्त बारह होते हैं । जो सामायिकदण्डक के प्रारम्भ और समाप्ति में तथा चतुर्विंशतिस्तवदण्डक के प्रारम्भ और समाप्ति के समय किये आते हैं। जैसे- "मो अरहंताणं” इत्यादि सामायिकदण्डक के पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनोविकल्प होता है उस मनोविकल्प को छोड़ कर सामायिकदंडक के उच्चारण के प्रति मन को लगाना सो मनः परावर्तन
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