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अर्थात - नित्यवन्दना के तीन काल हैं । पूर्वाह्नकाल, मध्याहकोल और अपराह्न काल । ये तीनों काल छह छह घड़ी के हैं । रात्रिकी पीछे की तीन घड़ी और दिन की पहिली तीन घड़ी एवं छह घड़ी पूर्वाह्नवन्दना में उत्कृष्ट काल है । दिन की अन्त की तीन घड़ी और रात्रि की पहली तीन घड़ी एवं छह घड़ी अपराह्न वन्दना में उत्कृष्ट काल है तथा मध्य दिन की आदि अन्त की तीन तीन घड़ी एवं छह घड़ी मध्याह्न वन्दना में उत्कृष्ट काल है । इस तरह सन्ध्यावन्दना में छह छह घड़ी उत्कृष्ट काल है ॥ २ ॥
योग्य-आसन
वन्दनासिद्धये यत्र येन चास्ते तदुद्यतः । तद्योग्यासनं देशः पीठं पद्मासनाद्यपि || ३ ||
अर्थात्-वन्दना की निष्पत्ति के लिये वन्दना करने को उक्त
साधु, जिस देश में जिस पीठ पर और जिन पद्मासनादि आसनों से बैठता है उसे योग्य आसन कहते हैं ॥ ३ ॥
वन्दनायोग्य - प्रदेश -
विविक्तः प्रासुकस्त्यक्तः संक्लेशक्लेशकारणैः । पुण्यो रम्यः सतां सेव्यः श्रेयो देशः समाधिचित् ॥ ४ ॥
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अर्थात् — विविक्त — जिसमें अशिष्ट जन का संचार न हो, जो प्रासुक-सम्मूर्छन जीवों से रहित हो, संक्लेशकारण - रागद्वेष आदि से और क्लेशकारण - परीषहरूप उपसर्ग से रहित हो, पुण्य-वन, भवन, चैत्यालय, पर्वत की गुफा सिद्धक्षेत्रादि रूप हो, रम्य-चित्त को प्रफुल्लित करने वाला हो, मुमुक्षु पुरुषों के सेवन करने योग्य हो और प्रशस्त ध्यान को बढ़ाने वाला हो ऐसे देश का वन्दना करने वाला साधु वन्दना की सिद्धि के लिए आश्रय ले ॥ ४ ॥