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देववन्दनादि-प्रकरणम्
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बन्दनायोग्य-पीठविजन्त्वशब्दमच्छिद्रे सुखस्पर्शमकीलकम् । स्थेयस्ताणायधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् ॥ ५॥
अर्थात्--जो खटमल आदि प्राणियों से रहित हो, चर चर शब्द न करता हो, जिसमें छेद न हों, जिसका स्पर्श सुखोत्पादक हो, जिसमें कील कांटा वगैरह न हो, जो हिलता-जुलता न हो, निश्चल हो ऐसे तृणमय दर्भासन चटाई वगैरह, काष्ठमय-चौकी, तखत आदि, शिलामय-पत्थर की शिला जमीन आदि रूप पीठ का वन्दना करने वाला साधु वन्दना सिद्धि के लिए आश्रय ले अर्थात् तृणरूप, काष्ठरूप और शिलारूप पीठ पर बैठ कर नित्यवन्दना करे ॥५॥
वन्दनायोग्य पद्मासनादिपद्मासनं श्रितो पादौ जंघाभ्यामुत्तराधरे । ते पर्यकासनं न्यस्तापूर्वोर्वीरासनं क्रमौ ॥६॥
अर्थात्-दोनों जंघाओं (गोड़ों) से दोनों पैरों के संश्लेष को पद्मासन कहते हैं अर्थात् दाहिने गौड़ के नीचे वायें पैर को करना और वायें गोड़ के नीचे दाहिने पैर को करना अथवा वायें पैर के ऊपर दाहिने गौड़ को करना और दाहिने पैर के ऊपर वायें गौड़ का करना सो पद्मासन है । जंघाओं को ऊपर नीचे रखने को पर्यकासन कहते हैं अर्थात् वायें गौड़ के ऊपर दाहिने गौड़ को रखना सो पर्यंकासन है। दोनों ऊरु (जांघों ) के ऊपर दोनों पैरों के रखने को वीरासन कहते हैं अर्थात् वायां पैर दाहिनी जांघ के ऊपर रखना और दाहिना पैर वायी जांघ के ऊपर रखना सो वीरासन है॥६॥
वन्दनायोग्य स्थानस्थीयते येन तत्स्थानं वन्दनायां द्विधा मतम् । . उद्भीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथावलम् ॥ ७॥
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