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उल्लख कहीं भक्तियों के प्रारम्भ में और कहीं उनकी टिप्पणी में कर दिये गये हैं। सिद्धभक्ति से लेकर नन्दीश्वरभक्ति तक की भक्तियों के सम्बन्ध में वे ही टीकाकार लिखते हैं-"संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः" । इस पर से मालूम पड़ता है कि सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति और नन्दीश्वरभक्ति ये सात संस्कृत भक्तियां पादपूज्यस्वामी कृत हैं और प्राकृतसिद्धभक्ति, प्राकृतश्रुतभक्ति, प्राकृतचारित्रभक्ति, प्राकृतयोगिभक्ति और प्राकृत आचार्यभक्ति ये पांच भक्तियां कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत हैं । प्राकृतनिर्वाणभक्ति का समावेश इस टीका में नहीं है, अतः वह कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत है या और किसी प्राचार्य द्वारा प्रणीत है यह हम निश्चित नहीं कह सकते । इसके अलावा शेष भक्तियां भी किनकी बनाई हुई हैं यह भी नहीं कह सकते । इतना कह सकते हैं कि छोटी बड़ी सभी भक्तियां तेरहवीं शताब्दी से पहले भी थीं। शान्त्यष्टक भी पादपूज्यकृत है। संभवतः पादपूज्य शब्द का तात्पर्य पूज्यपाद देवनन्दी से है।
टीकाकार-- भक्तियों के टीकाकार प्रभाचन्द्र नामके आचार्य है। इस नामके कई प्रौढ़ विद्वान् प्राचार्य हो गये हैं, भट्टारक भी इस नाम के हुए हैं। उनमें से कौन से प्रभाचन्द्र क्रियाकलाप टीका, सामायिक टीका और प्रतिक्रमण टीका के कर्ता हुए हैं और किस समय वे इस धरातल को समलंकृत कर चुके हैं। यह निश्चय यथेष्ट साधन और शीघ्रता के कारण हम नहीं कर सके हैं । इतना अवश्य कह सकते हैं कि उक्त सामायिक पाठ में अनगारधर्मामृत और सागरधर्मामृत के ये दो पद्य पाये जाते हैं
योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनतिः । विनयेन यथाजातः कतिकर्मामल भजेत् ।।
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