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कतिकर्मपूर्वक भक्तिपाठ भी नहीं करते हैं। मालूम पड़ता है मुनिपरंपरा के न रहने से उनमें यह जुदी ही परंपरा चल पड़ी है। अस्तु, देववन्दना से आगे का विधान भी उक्त आगमों के अनुसार संकलित किया गया है।
द्वितीय अध्याय में तीन प्रतिक्रमणपाठ हैं। तीनों ही भागमानुसार हैं। भावक प्रतिक्रमण को छोड़कर, यतिदेवसिकरात्रिप्रतिक्रमण
और पाक्षिकादि प्रतिक्रमण पर प्रभाचन्द्राचार्य विरचित विस्तृत और उत्तम टीकाएं भी पाई जाती हैं।
तृतीय अध्याय में छोटी बड़ी भक्तियों का समावेश किया गया है। भक्तियों की सब टीकाएं प्रभाचन्द्राचार्य-प्रणीत हैं । इनका बनाया हुआ एक क्रियाकलाप नाम का ग्रंथ है। उसमें तीन अध्याय हैं। उनमें से पहला अध्याय प्रारंभ से अन्त तक ज्यों का त्यों ही रख दिया गया है। दूसरे अध्याय में चैत्यभक्ति और स्वयंभू कोटीकाएं है और तीसरे अध्याय में (१) शान्त्यष्टक, (२) शांतिपाठ या शांतिभक्ति, (३) गजांकुशकृत अभिषेकपाठ, (४) मुनीन्द्रपूजानवक, (५) भक्तामरस्तोत्र और (६) जिनसेन-प्रणीत सरस्वतीपूजा की टीकाएं हैं। चैत्यभक्ति की टीका दूसरे अध्याय में से तथा शान्त्यष्टक और शान्तिभक्ति की टीका तीसरे अध्याय में से ली गई है। वीरभक्ति और चतुर्विंशतिस्तव की टीका प्रतिक्रमण टीका से तथा पंचगुरुभक्ति और समाधिभक्ति की टीका सामायिक टीका से ली गई है।
चतुर्थ अध्याय का पाठ भी पूर्वशास्त्रानुसार संकलित किया गया है। उसका दीक्षापटल का पाठ जैसा मिला वैसा ही ज्यों का त्यों जोड़ दिया गया है।
मुख कर्ता
चैत्यभक्ति, देवसिकरात्रिप्रतिक्रमणभक्ति और पाक्षिकादिप्रति क्रमणभक्ति गौतमगणधर कृत हैं,ऐसा टीकाकार लिखते हैं। इस विषय के
१,२,३ । इनकी टीकाएं भी पृथक छप चुकी हैं।
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