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कैद में फँसी है आत्मा
कैद में फँसी है आत्मा
भावी शुद्ध परमात्माओं!
आज का विषय मैं एक कथा के माध्यम से प्रारम्भ करूँगा।
एक बार एक भक्त अपने आराध्य देवता की आराधना में निमग्न था। आँखें बन्द कर के वह स्तोत्र-गान कर रहा था, उस के आराध्य थे गणपति। जैनागमानुसार गणपति शब्द का अर्थ है, आचार्य। गणानामधिपति सः गणपति, जो गण का अर्थात् मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, इस चतुर्विध संघ का अधिपति अर्थात् नायक हो, वह गणपति है।
वह आदमी संघपति आचार्य की भक्ति नहीं कर रहा था, उस के आराध्य थे शंकर जी के पुत्र गणेश जी। वह अपनी सारी मनोकामनाएँ व्यक्त करता जा रहा था। उस की आँखें अचानक उन्मीलित हुईं, और ......... उस ने देखा, भगवान का नैवेद्य चूहा ले जा रहा है। भक्ति बंद हो गई और चिन्तन शुरू हो गया। उस ने सोचा कि जो भगवान अपने नैवेद्य की रक्षा नहीं कर सकते, वे मेरी क्या रक्षा कर सकेंगे? वस्तुतः भगवान तो चूहा है, उस ने चूहे को पकड़ कर पिंजरे में बन्द कर दिया व उस की उपासना करने लगा।
बन्धुओं! यह है हमारी आस्था का चित्रण। इतना क्षणिक है हमारा श्रद्धान। 6/8 माह तक हमारे कार्य को देख कर हमें आजीवन के लिए नौकरी पर रखा जाता है। 8/10 वर्ष की निरन्तर सेवा-सुश्रूषा के उपरान्त हमें वृक्ष से सुमधुर फल प्राप्त होते हैं। दूध में जामन डालने के बाद 6/8 घण्टे दही की प्राप्ति हेतु इन्तजार करना पड़ता है और हम कर लेते हैं किन्तु धर्म मार्ग में अधीर हो उठता है मन, इसलिए चंचलता का उद्भव होता है।
कई दिनों तक उस ने चूहे की पूजा की किन्तु परतन्त्रता कौन चाहे? क्योंकि "पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं"। पूजा-अर्चना जैसे महानुष्ठान भी परतंत्रता के कारण चूहे के लिये सुखकर नहीं थे। एक दिन मौका हाथ लग गया, चूहा पिंजरे से भाग निकला, किन्तु कहते हैं कि भवितव्या बलवती" -- होनी दुर्निवार है। चूहा पिंजरे से ज्यों ही बाहर आया त्यों ही बिल्ली उस पर झपट पड़ी। भक्त यह दृश्य देख रहा था।