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________________ * जिनसहस्रनाम टीका- ८३ हित: शरण्यः 'यदुगवादितः', अर्तिमधनसमर्थः = 'शृ' धातु शरण वा भयनिवारण में आती है, नष्ट होता है भय जिससे वह शरण कहलाते हैं और शरणागत के रक्षक होने से शरण्य कहलाते हैं अर्थात् शरणागत के दुःखों का मथन करने में समर्थ हो । पुण्यवाक् = पुण्यं वक्तीति पुण्यवाक्, सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्राणिपुण्यमिति वचनात् = जिनदेव अपने वचनों से पुण्य का स्वरूप कहते हैं, साता वेदनीय, शुभ आयु, नाम, गोत्र, ये सब पुण्य से प्राप्त होते हैं और प्रभु के ये सारे होते हैं। पुण्य का कथन करने वाले वचनों के धारक होने से भी आप पुण्यवाक् हैं। - पूतः = पूयते स्म पूतः पवित्र इत्यर्थः ' पूयतेस्म' जिनेन्द्र घातिकर्म के नाश से पवित्र हुए हैं, अत: उनका पूत नाम योग्य है। वरेण्यः = वृञ् वरणे वृणोति मुक्तिं स वरेण्यः 'वृञ् एण्य' श्रेष्ठ इत्यर्थः जिनदेव ने मुक्ति को वर लिया है अतः वे वरेण्य हैं, श्रेष्ठ हैं। पुण्यनायक: = पुण्यस्य नायकः पुण्य जिनदेव के नायक हैं। अगण्यः = गणसंख्याने, गणयतीति गणः गणाय हितो गण्यः नगण्यः अगण्यः गणयितुमशक्य इत्यर्थः गणू धातु संख्या अर्थ में है, गिना जाता है, वह गण कहलाता है वा गण के लिए हितकारी हो उसे गण्य कहते हैं, जिसकी गणना करना शक्य नहीं है उसको अगण्य कहते हैं। अर्थात् आप अपरिमित गुणों के धारी हैं अतः अगण्य हैं। = से - - पुण्यधीः = पुण्येनोपलक्षिता धीः बुद्धिर्यस्य स पुण्यधीः 'पुण्येन' पुण्य है बुद्धि जिनकी ऐसे जिनेश्वर पुण्यधी हैं। युक्त - गण्य: गणाय हितो गण्यः बारह प्रकार के गण के लिए जिनेश्वर हितकारक हैं अतः वे गण्य कहलाते हैं।' गुणों से सहित हैं इसलिए गुण्य कहलाते हैं। पुण्यकृत् = पुण्यं कृतवान् पुण्यकृत् 'कृञः सुपुण्यपापकर्म मंत्रपदेषु क्विप्' १. महापुराण ६१४ पृ. २५ बाँ पर्व ।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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