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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ८० कृतक्रियः = कृता समाप्तिं नीता क्रिया येनासौ कृतक्रियः कृतकृत्य इत्यर्थः = कृता समाप्त की है क्रिया जिन्होंने ऐसे जिनेश्वर कृतक्रिय हैं अर्थात् कर्मनाश करने की क्रिया भगवन्त ने पूर्ण की है। गणाधिपः = गणस्य द्वादशभेदसंघस्य अधिपो नाथः गणाधिपः = बारह प्रकार की सभा में स्थित गणों के अधिपति होने से गणाधिप हैं । गणज्येष्ठः = गणेषु ज्येष्ठः गणज्येष्ठः = बारह भेद वाले संघ में जिनेश सबसे ज्येष्ठ हैं अतः गणज्येष्ठ हैं। गुण्य: गुणाय हितो गुण्यः अथवा गुणेषु पूर्वोक्तेषु चतुरशीतिलक्ष संख्येषु नियुक्तः साधुर्वा गुण्यः 'यदुगवादित: ' = जिनेश्वर गुणों के लिए हितकर हैं, गुणवर्द्धक हैं अथवा चौरासी लक्ष उत्तर गुणों में जिनेश्वर ने पूर्णता प्राप्त की है अतः वे गुण्यगुणों में साधु हैं। वा 'गण्य' भी पाठ है, तीन लोक में आप ही गणना करने योग्य हैं अतः गण्य हैं। पुण्य: = पुण् शोभे पुणति शोभते इति पुण्यः, पर्यजन्यपुण्ये - जो शोभता है, शोभन है गुणों से तथा देह से भी सुन्दर है, वह पुण्य है । वा पवित्र होने से भी पुण्य है, वा शरण में जाने वाले को पवित्र करने वाले होने से भी पुण्य है। गणाग्रणीः = गणानां द्वादशसभानामग्रणी: प्रधानः स गणाग्रणी: समवसरण की बारह सभाओं में प्रभु ही अग्रणी प्रधान होते हैं अतः गणाग्रणी हैं। वा बारह सभा में स्थित जीवों को कल्याण के मार्ग में आगे ले जाने वाले हैं अतः गणाग्रणी हैं। - गुणाकर: = गुणानां केवलज्ञानादीनां चतुरशीतिलक्षानां आकर : उत्पत्तिस्थानं गुणाकर अथवा गुणानां षट् चत्वारिंशत् संख्यानामाकरो गुणाकरः उक्तं च - अरहंता छियाला सिद्धा अट्ठेव सूरि छत्तीसा | उज्झाया पणवीसा साहूणं होंति अडवीसा ॥ जिनेश्वर केवलज्ञानादि गुणों के आकर उत्पत्ति स्थान हैं। अथवा चौरासी
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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