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________________ * जिनसहस्रनाम टीका ७४ # परंब्रह्म = परमुत्कृष्टं ब्रह्म पंचमज्ञानस्वरूपः परंब्रह्म - पर अकृष्ट ब्रह्म केवलज्ञान जिनका स्वरूप है ऐसे जिनेश्वर परंब्रह्म हैं । ब्रह्मात्मा = बृहति वृद्धिं गच्छन्ति केवलज्ञानादयो गुणा यस्मिन् स ब्रह्मा आत्मा यस्य स ब्रह्मात्मा = बृहन्ति, बढ़ते हैं, केवलज्ञानादिक गुण जिसमें ऐसा आत्मा जिसके है ऐसे जिनेश्वर को ब्रह्मात्मा कहते हैं। ब्रह्म-ज्ञान वा ब्रह्मचर्य ही आपका स्वरूप है अतः आप ब्रह्मात्मा हैं । ब्रह्मसंभवः = ब्रह्मण: आत्मन: चारित्रस्य ज्ञानस्य मोक्षस्य च संभव उत्पत्तिर्यस्मात्स ब्रह्मसंभव:, अथवा ब्रह्मणः क्षत्रियात् संभव: उत्पत्तिर्यस्य स ब्रह्मसंभव:, अथवा ब्रह्मा धर्माधर्मसृष्टिकारकः स चासौ स समीचीनो भवः पापसृष्टिप्रलयकारकः ब्रह्मसंभवः - ब्रह्म की अर्थात् आत्मा की एवं ज्ञान, चारित्र तथा मोक्ष की उत्पत्ति जिनसे होती है ऐसे जिनेश्वर को ब्रह्मसम्भव कहते हैं। अथवा ब्रह्म से क्षत्रिय से जिनकी उत्पत्ति हुई है, ऐसे जिनेश्वर को ब्रह्मसम्भव कहते हैं। अथवा ब्रह्मा-धर्मसृष्टि को उत्पन्न करने वाले जिनेश्वर को ब्रह्मा कहते हैं। वह ब्रह्मसम्भव उत्तम जन्म धारण करने वाला है। अर्थात् पापसृष्टि का नाश करने वाला है। अथवा आपको स्वयं शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति हुई है तथा आपके निमित्त से दूसरों को होती है अतः ब्रह्मसंभव हैं। 1 महाब्रह्मपतिः = ब्रह्मणां मतिज्ञानादीनां चतुर्णामुपरि वर्तमान पंचमकेवलज्ञानं महाब्रह्मोच्यते तस्य पतिः स्वामी महाब्रह्मपतिः, अथवा महाब्रह्मा सिद्धपरमेष्ठी स पति: स्वामी यस्य स महाब्रह्मपतिः, दीक्षावसरे 'नमः सिद्धेभ्यः ' इत्युच्चारणत्वात् अथवा महाब्रह्मणां निरागधराणां लोकान्तिकानामहमिन्द्राणां च पति: स्वामी स महाब्रह्मपतिः - मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानों को ब्रह्म कहते हैं, पाँचवाँ ज्ञान केवलज्ञान है, उसको महाब्रह्म कहते हैं, उसके स्वामी जिनेश्वर होने से वे महाब्रह्मपति हैं । अथवा सिद्धपरमेष्ठी महाब्रह्म हैं, वे जिनेश्वर के स्वामी हैं अतः अर्हन महाब्रह्म सिद्ध परमेष्ठी जिनके स्वामी हैं ऐसे अर्हन् महाब्रह्मपति कहे जाते हैं। दीक्षा के समय सिद्ध परमेष्ठी को जिनेश्वर नमस्कार करते हैं। अथवा गणधर, लौकान्तिक देव तथा अहमिन्द्र इनको महाब्रह्म कहते हैं, क्योंकि ये आजीवन ब्रह्मचारी होते हैं। इनके जिनेश्वर स्वामी होने से वे महाब्रह्मपति हैं । वा गणधर आदि महाब्रह्माओं के अधिपति हैं अतः आप महाब्रह्मपति हैं ।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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