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________________ * जिनसहस्त्रनाम टीका - ५३ का प्रमाण जितना है उतना आत्मा है ऐसा भी मानना योग्य नहीं है । या घर में स्थित चटका पक्षी के समान आत्मा शरीर के एकदेश में स्थित है, ऐसा मानना भी योग्य नहीं है। या यह आत्मा सर्वव्यापी है ऐसा मानना भी योग्य नहीं है । परन्तु निश्चय नय से आत्मा लोकव्यापक होने पर भी व्यवहार नय से यह शरीर प्रमाण है, ऐसा जिन जानते हैं, अतः वे क्षेत्रज्ञ हैं क्षेत्र अर्थात् आत्मा को जानने वाले होने से आप क्षेत्रज्ञ हैं । सहस्राक्षः = अक्षशब्दस्य सकलेन्द्रियोपलक्षणं, सहस्रमक्षाणां अनंतज्ञानानां यस्य स सहस्राक्षः अनंतदर्शीत्यर्थः = अक्ष शब्द का अर्थ केवल नेत्र न समझना परन्तु अक्ष शब्द को कान, नाक, जिह्वा आदि सर्व इन्द्रियों का वाचक मानना चाहिए अर्थात् सहस्रों इन्द्रियों से जिनको ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसे अनन्तज्ञानी जिनेन्द्र को सहस्राक्ष कहना चाहिए अर्थात् अनन्तदर्शी जिनेश्वर, यह अर्थ सहस्राक्ष शब्द से लेना चाहिए। अनन्त पदार्थों के दर्शक होने से भगवान् सहस्राक्ष हैं। सहस्रपात् = सहस्रं पादानां अनंतवीर्याणां यस्य स सहस्रपात् अनंतवीर्य इत्यर्थः = जिनेश्वर के सहस्रों पाद याने चरण हैं अर्थात् वे अनन्तवीर्य युक्त हैं। अनन्त वीर्य के धारक होने से आप सहस्रपात् हैं । भूतभव्यभवद्भर्त्ता = भूतमतीतं भव्यं भविष्यद्, भवच्च वर्त्तमानं कालत्रयावच्छिन्नं जगत्तस्य भर्त्ता नाथः स भूत भव्य भवद्भर्त्ता = भूत अतीतकाल, भव्य भविष्यकालीन तथा भवन् - वर्तमान कालीन ऐसे जगत् के जिनेश्वर भर्ता स्वामी हैं। वर्त्तमान, भविष्यत् और भूत तीनों कालों के ज्ञाता होने से भूत, भव्य, भवद्भर्त्ता है। विश्वविद्यामहेश्वरः = विश्वविद्यायाः केवलज्ञानविद्यायाः महेश्वर: महांश्चासौ ईश्वर : महेश्वर: स्वामीत्यर्थः = सम्पूर्ण विद्या केवलज्ञान को विश्वविद्या कहते हैं, उसके जिनपति महान् ईश्वर हैं, स्वामी हैं। सम्पूर्ण द्वादशांग विद्याओं के पारगामी होने से आप विश्वविद्या महेश्वर कहे जाते हैं। - इस प्रकार सूरिश्री अमरकीर्ति विरचित जिनसहस्रनाम की टीका का दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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