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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ३७ * गर्भगेहे शुचौ मातुस्त्वं दिव्ये पद्मविष्टरे। निधाय स्वां परां शक्तिमुदभूतो निष्कलोऽस्यतः ॥ निकल गया है काल वा शरीर जिनके वे निष्कल हैं अर्थात् जिनके संसारपरिभ्रमण काल समाप्त हो गया, वा जो शरीर रहित हो गये वे निष्कल कहलाते धन की वृद्धि की शिल्पी कारादि १६ कलांश हैं उन कलाओं से जो रहित है वह निष्कल है । 'कल' का अर्थ वीर्य भी है, अतः कामके शत्रु होने से कामोद्रेक वीर्य का नाश हो जाने से वे निष्कल हैं। 'कल' का अर्थ अजीर्ण होता है, कवलाहार रहित होने से वे अजीर्ण रहित हैं अतः निष्कल हैं। अव्यक्तमधुर आवाज, वीर्य और अजीर्ण अर्थ में 'निष्कल' शब्द का प्रयोग होता है । अथवा 'निष्क' का अर्थ सुवर्ण है, रत्नवृष्टि के समय सुवर्ण को लाता है देता है, अतः निष्कल है । अथवा आहारदान के समय दाता के घर में सुवर्ण और रत्नों की वर्षा होती है अतः निष्कल है । अथवा राज्यपद प्राप्ति के समय, बक्षस्थल को विभूषित करने वाला, सतरल, एक हजार लड़ी वाला, रत्न निर्मित सुवर्ण का हार कंठ में धारण करते हैं अतः निष्कल है। कहा भी है- वक्षस्थल का भूषण, एक सौ आठ लड़ी का सुवर्ण का हार, सुवर्ण, तरल, दीनार कष् ये सर्व निष्कवाची हैं। माता के पवित्र गर्भगृह में कमलविष्टर पर अपने को रख कर परम शक्ति से तुम उत्पन्न हुए हो इसलिए भी निष्कल हो ऐसा आर्ष ग्रन्थों में लिखा है। - भुवनेश्वर: = भुवनस्य त्रैलोक्यस्येश्वरः प्रभुः स भुवनेश्वर: = भुवन याने लोक जो तीन लोक के ईश्वर हैं वे भुवनेश्वर कहे जाते हैं। निरञ्जनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिर्निरामयः । अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थ : स्थाणुरक्षयः ॥४ ॥ हे जिनराज ! निरञ्जन, जगज्ज्योति, निरुक्तोक्ति, निरामय, अचलस्थिति, अक्षोभ्य, कूटस्थ, स्थाणु, अक्षय ये आपके नाम हैं ।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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