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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २९ ** पवित्र अर्थात् निर्दोष यानी अनर्थक श्रुति कटु, कर्णकटु, पूर्वापर विरुद्धार्थ प्रतिपादक, अलक्षण, स्वसंकेत, प्रक्लृप्तार्थ इत्यादि दोष विरहित वाणी प्रभु बोलते हैं अतः वे पूतवाक् हैं। पूतशासन: - पूतं पवित्र पूर्वापरविरोधरहितं शासनं शिक्षादायक मत यम्य स पूतशासन: = भगवान का उपदेश पवित्र पूर्वापरविरोध रहित जीवादि तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाला है। पूतात्मा; = पूतः पवित्रः, कर्मकलंकरहित; आत्मा स्वभावो यस्य स पूतात्मा, अथवा पुनाति प्रकर्षेण पवित्रयति - भव्यजीवान् इति पू: पवित्रकारक: सिद्धपरमेष्ठी, तस्य ता लक्ष्मीरनंतचतुष्टयं तया उपलक्षितः आत्मा स्वभावो यस्य स पूतात्मा सिद्धस्वरूप इत्यर्थः = पवित्र, कर्मकलंक से रहित आत्मा का स्वभाव है जिसका वह पूतात्मा है। अथवा भव्य जीवों को प्रकर्ष से पवित्र करने वाले सिद्ध परमेष्ठी पू' शब्द से वाच्य हैं, उनकी 'ता' लक्ष्मी जो कि अनन्त चतुष्टयरूप है, उससे युक्त आत्मस्वभाव जिनका है वे पूतात्मा हैं, सिद्धस्वरूप हैं। परमज्योतिः = परमं उत्कृष्टं ज्योतिः केवलज्ञानं यस्य स परमज्योतिः = परम उत्कृष्ट केवलज्ञान ज्योति है जिसकी वह परमज्योति है। धर्माध्यक्षः = धर्म में अध्यक्ष है वह धर्माध्यक्ष कहलाता है। धर्म चारित्रे अध्यक्षः अधिकृतः अधिकारी नियोगवान् नियुक्तो न किमपि धर्मविध्वंसं कर्तुं ददाति स धर्माध्यक्षः । अथवा धर्मस्याधिश्चिन्ता धर्माधिः, धमाधौ धर्मचिन्तायां अक्षो ज्ञानं आत्मा वा यस्य स धर्माध्यक्षः। उक्तं च आशाबन्धकचिन्तार्ति-व्यसनेषु तथैव च।। अधिष्ठाने च विद्वद्भिरधिशब्दो नरि स्मृतः॥ अथवा - धर्म अर्थात् चारित्र में अध्यक्ष है, अधिकृत है, अधिकारी है, किसी को भी धर्म का विध्वंस नहीं करने देते हैं उसको धर्माध्यक्ष कहते हैं। अथवा धर्म में जिसकी 'धि' बुद्धि है, चिन्ता है जिसकी वह धर्माधि कहलाता है उस धर्म बुद्धि में जिनका ज्ञान है, लीनता है। अथवा धर्मबुद्धि में जो अध्यक्ष है, प्रमुख है उसको धर्माध्यक्ष कहते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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