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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २७* त्रिजगत्परमेश्वरः = जिनेन्द्र देव तीन लोक के परम उत्कृष्ट ईश्वर या स्वामी हैं अथवा त्रैलोक्य की जो परा याने उत्कृष्ट मा लक्ष्मी है उसके जिनेन्द्र ईश्वर हैं, स्वामी हैं। इसलिए त्रिजगत्परमेश्वर हैं। श्रीमद् अमरकीर्ति विरचित जिनसहननाम टीका में प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ। # द्वितीयोऽध्यायः) (दिव्यभाषादिशतम्) दिव्यभाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासनः । पूतात्मा परमज्योतिर्धाध्यक्षो दमीश्वरः ॥१॥ अर्थ : दिव्यभाषापति, दिव्य, पूतवाक्, पूतशासन, पूतात्मा, परमज्योति, धर्माध्यक्ष, दमीश्वर ये आठ नाम जिनेश्वर के हैं, जिनका क्रमशः स्पष्टीकरण करते हैं दिव्यभाषापतिः = दिव्या अमानुषी भाषा अष्टादशमहाभाषा-सप्तशत क्षुल्लकभाषा ध्वनिः तस्याः पतिः स्वामी स दिव्यभाषापति:- दिव्य अमानुषी भाषा, अठारह महाभाषा तथा सात सौ क्षुल्लक भाषाओं के जो स्वामी होते हैं, वे दिव्य भाषापति कहलाते हैं। यहाँ दो उपयोगी गाथाएँ हैं अट्ठारसमहाभासा खुल्लय भासा य सत्तसयसंखा। अक्खरअणक्खरप्पया सण्णीजीवाण सयलभासाओ॥१॥ एदेसिं भासाणं तालुवदंतोट्टकंठवावारं। परिहरिय इक्ककालं भव्वजणो दिव्वभासितं ॥२॥ अर्थ : अठारह महाभाषा और सात सौ लघुभाषायें हैं। इन सर्व भाषाओं के भगवान ज्ञाता हैं, ये अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक की अपेक्षा दो प्रकार की होती हैं । संज्ञी जीवों की भाषा अक्षरात्मक होती है तथा द्रीन्द्रियादिक असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की भाषा अनक्षरात्मक होती है। भगवान की भाषा तालु, ओष्ठ, दन्त, कण्ठ आदि अवयवों में व्यापार न होकर भी प्रकट होती है, अत: भगवद्वाणी को दिव्य भाषा कहते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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