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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २४ । प्रभूष्णुः = प्रभवति इंद्रधरणेन्द्र नरेन्द्र चन्द्र गणीन्द्रादीनां प्रभुत्त्वं प्राप्नोतीत्येवंशीलः प्रभूष्णु 'जिभुवोष्णुक् = इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र, चन्द्र तथा गणीन्द्र, गणधरदेवादिक का प्रभुत्व जिनराज ने प्राप्त किया है अत: वे प्रभूष्णु हैं। अजरः = न विद्यते जरा वार्धक्यं यस्येति स अजर: = जिनको बुढ़ापा प्राप्त नहीं हुआ ऐसे प्रभु हैं, इसलिए अजर हैं। 'अयज्यः = यष्टुं शक्यो यज्यः न यज्यः अयज्यः। शकि सहि पवर्गान्ताच्च यप्रत्ययः । शकि ग्रहणात् शक्यार्थो ग्राह्यः, स्वामिनोऽलक्ष्यस्वरूपत्वात् केनापि यष्टुं न शक्यते तेन अयज्य: इत्युच्यते = जिनकी पूजा करना शक्य है, वे यज्य कहे जाते हैं। जिसकी पूजा करना शक्य नहीं है अल्य ज्ञानी उसकी पूजा नहीं कर सकते हैं अत: भगवान् अयज्य कहलाते हैं। यज् धातु है शकि, सहि पवर्गान्त और यज् धातुमें 'य' प्रत्यय होता है। स्वामी अलक्ष्य स्वरूप होने से किसी के भी द्वारा पूजा करना शक्य नहीं है अत: अयज्य हैं। भ्राजिष्णुः = भ्राजिटु भ्रासुटु भ्रास दीप्तौ इति धातोः प्रयोगात् भ्राजते चंद्रार्ककोटिभ्योऽप्यधिकां दीप्तिं प्राप्नोतीत्येवंशील: भ्राजिष्णुः = “भ्राज्यलंकृञ् भू सहि रुचि वृति वृधि चरि प्रजनापत्रपेनामिष्णुच्”= भ्राजिटु, भ्रासूटु, भ्रास धातु का प्रयोग दीप्ति अर्थ में होता है अत: 'भ्राजते' कोटि सूर्य और कोटि चन्द्र से अधिक जिसकी दीप्ति है, कान्ति है, अत: भगवान भ्राजिष्णु कहलाते हैं। अथवा भ्राज्य धातु अलंकार अर्थ में है। तीन जगत् को अलंकृत कर रहे हैं, अतः भ्राजिष्णु हैं। धीश्वरः = धीनां बुद्धीनां ईश्वर: स्वामी धीश्वरः = धी याने बुद्धि, अनन्त बुद्धियों के प्रभु ईश्वर हैं, अतः धीश्वर कहे जाते हैं। अव्ययः = न व्ययो विनाशो यस्य द्रव्यार्थिकनयेन सोऽव्यय: । द्रव्यार्थिक नय से इनका कभी व्यय नहीं होता है अत: भगवान अव्यय हैं। १. पाठान्तर - महापुराण में जिनसेनस्वामी ने इसका एक अर्थ 'अजय:' किया है अर्थात् आप कभी जीर्ण नहीं होते इसलिए अजर्य हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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