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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २१ * सिद्धः = षिधु गत्यां षिधु शास्त्रे माङ्गल्ये च । षिधु संसिद्धौ वा षिधु धात्वादे: षः सः सिद्धः षिधधातोस्तस्मात्सिद्ध: । गत्यर्था कर्मकाश्लेष शीस्थासव सजनरुह जीर्थतीभ्यश्चय मिजतः ! केपणाचा कणा गुणो नराधिपति झुधि क्षुधि बंधिशुद्धि सिध्यति बुध्यति । युधि व्यधि साधेधातोर्नेट् । घधभम्यस्तथोोधः तस्य घ: घुटा तृतीयश्चतुर्थे तु घस्य दत्त्वं व्यंजनमस्वरं परं वर्ण नयेत्। सिरेफसो सिद्धिः विसर्जनीयः सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः संजाता यस्यातः स सिद्धः = षिधु धातु गतिअर्थ में आता है जिससे बनता है सिद्धति = जाता है। शास्त्र अर्थ में है। शास्त्र का पर्यायवाची शब्द सिद्धान्त है, जिसका अर्थ है जिसके द्वारा वस्तुस्वभाव की सिद्धि होती है, वह सिद्धान्त कहलाता है। षिधु धातु मांगल्य अर्थ में भी आता है। विधु धातु सिद्धि अर्थ में भी आता है। षिधु धातु के ष का स: आदेश हो जाता है। षिधु धातु का अन्तिम अक्षर द्वित्व होता है अत: सिध्ध ऐसे शब्द की उत्पत्ति होती है पुनः वर्ग के चतुर्थ अक्षर की उपधा उसी वर्ग का तृतीय अक्षर हो जाता है, इस प्रकार सिद्ध शब्द की व्युत्पत्ति होती है। सिद्धि - स्वात्मोपलब्धि, शिवसौख्यसिद्धि को जो प्राप्त हो चुके हैं अतः इनको सिद्ध कहते हैं। __ अथवा - सि - सितं - अत्यन्त कठिन तीक्ष्ण आत्मा के साथ अनादि काल से बँधे हुए कर्मों को 'ध्मातं' नष्ट कर दिया है, ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा भस्म कर दिया है अतः सिद्ध कहलाते हैं। षिधु धातु गमन अर्थ में है अत: जो ऐसी गति को प्राप्त हो गये हैं जिससे पुनः आगमन नहीं है इसलिए भगवान् सिद्ध कहलाते हैं। बुद्धः = बुद्धिः केवलज्ञानलक्षणा विद्यते यस्य स बुद्ध: प्रज्ञादित्वात् णः । अथवा बुध्यते जानाति सर्वमिति बुद्ध; अत्रानुबंधमिति बुद्धि पूजार्थेभ्यो: वर्तमाने क्तप्रत्ययः = केवलज्ञान है लक्षण जिसका ऐसी बुद्धि जिनको प्राप्त हुई है, उसे बुद्ध कहते हैं प्रज्ञावान वाला होने से । अथवा जो सर्व को जानते हैं वे जिनराज बुद्ध हैं। प्रबुद्धात्मा - प्रकर्षण बुद्धः केवलज्ञानसहितः आत्मा जीवो यस्य स
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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