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________________ : ! * जिनसहस्रनाम टीका २५५ अलमास्तां गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणाः । त्वन्नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासिशिषामहे ||३३ ॥ टीका अधौद्धत्यपरिहारं कथयन्ति श्रीजिनसेनाचार्या अलं पूर्ण आस्तां तिष्ठतु, किं तत्स्तोत्रं गुणानां स्वयं स्तवनं न गुणस्तोमं चायकारत्वदीया कुमाः अनंता: वर्त्तन्ते । तथा चोक्तं समन्तभद्राचार्यै: - - गुणस्तोकं समुल्लंघ्य तद्बहुत्वकथास्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥ हे देव ! वयं श्रीजिनसेनाचार्याः पर्युपासिशिषामहे उपासनां सेवां कर्तुमिच्छामः । कं प्रति त्वां श्रीनाभिजं मरुदेवीनन्दनं प्रति, केन कारणभूतेन नामस्मृतिमात्रेण नाम्नामष्ट सहस्रेण स्मृतिमात्रेण स्मरणमात्रेण प्रमाणेन सेवां कर्तुमिच्छामः प्रमाणार्थे द्वयसट्दध्नटमात्र प्रत्यया भवन्ति । - हे भगवन् ! तेरे गुणों का स्तवन (कथन) तो दूर रहो अर्थात् तुम्हारे गुणों का कथन हम नहीं कर सकते, क्योंकि आपके गुण अनन्त हैं सो ही समन्त भद्राचार्य ने कहा है कि “अल्प गुणों का विस्तार करके कथन करना स्तुति कहलाती है। परन्तु आपके गुण अनन्त हैं जो वचनों के द्वारा कहने में नहीं आते अतः आपकी स्तुति कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती। जिनसेन आचार्य कहते हैं कि हे नाभिनन्दन ! आपकी स्तुति हम नहीं कर सकते, इसलिए एक हजार आठ नामों के स्मरण मात्र से आपकी सेवा करना चाहते हैं अर्थात् आपके नाम का स्मरण करके अपने को पवित्र बनाने का प्रयत्न करते हैं। इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते श्रीमहापुराणे श्रीवृषभस्तुतेष्टीका सम्पूर्णा कृता सूरि श्रीमदमरकीर्त्तिना ।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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