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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २५४ में अथवा त्रिदशांगनानां नयनविक्षेपात् मनो न चलतीति अचल: तस्मै । उक्तं श्रीमानतुंगसूरिणा चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिनतिं मनागपि मनो न विकारमार्गम्। कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ।। इति वचनादचलः तस्मै। पुनः अक्षरात्मने न क्षरतीत्यक्षरः अविनश्वरः अश्नुते व्याप्नोतीत्यक्षरः, अक्षरः आत्मा यस्येति अक्षरात्मा तस्मै अक्षरात्मने । अर्थ : जरा (बुढ़ापा) रहित आपको नमस्कार है। जन्म रहित हैं, माता के गर्भ में पुन: आने वाले नहीं हैं अत: अजन्मन् - वीतजन्म वाले आपको नमस्कार हो। आपका मरण नहीं है अत: अमृत्यु वाले आपको नमस्कार हो। हे भगवन् ! आप अपने स्वभाव से कभी चलायमान नहीं हुए हैं, त्रिदशांगना (देवांगना) के कटाक्ष से भी आपका मन कभी विकार को प्राप्त नहीं हुआ है। मानतुंग आचार्य ने भक्तामर काव्य में कहा है- भगवन् ! देवांगनाओं के नेत्रकटाक्षों के द्वारा आपका मन विचलित नहीं हुआ। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ! पर्वतों को चलायमान करने वाली वायु के द्वारा क्या मेरु पर्वत का शिखर कम्पित हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। आपके मन रूपी मेरु को चलायमान करने में कोई समर्थ नहीं है अतः आप अबल हैं, आपको नमस्कार हो। जिसका क्षरण-नाश नहीं होता है उसको अक्षर कहते हैं तथा नाश नहीं होना ही जिसका स्वरूप है उसको अक्षरात्मा कहते हैं। अथवा 'अक्ष्णोति व्याप्नोति' इति अक्षरः, जिसके ज्ञान में तीन लोक के सारे पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसको अक्षर कहते हैं। जो अविनाशी है, नित्य है, स्वरूप है, वा जिस ज्ञान में तीन लोक के सारे पदार्थ बिम्बित होते हैं ऐसे अविनाशी केवल स्वरूप आत्मा को 'अक्षरात्मा' कहते हैं, उस अक्षर आत्मा के लिए मेरा नमस्कार हो।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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