SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २४९ * नाभिनन्दन तीन जगत् के रक्षक-पालक हैं। तायिने पालकाय, उस रक्षक पालक के लिए नमस्कार हो। 'परमार्थाय ते नमः' = परमार्थ (मोक्ष) के ज्ञाता आपको नमस्कार हो, यह पाठ भी है। नमस्तुभ्यमलेश्याय शुद्धलेश्यांशकस्पृशे। नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षिणे॥२९॥ टीका : तुभ्यं नमोस्तु कस्मै अलेश्याय जीवं कर्मणा लिम्पीति लेश्या कृतायुरोन्यत्रापि यः पृषोदरादित्वात् पस्य शः वा 'कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तयो लेश्याः'। कृष्ण नील कापोत पीतपद्म शुक्ललेश्याः न विद्यन्ते लेश्या यस्य स अलेश्यः तस्मै अलेश्याय शुक्ललेश्यां मुक्त्वा इतरपंचलेश्यारहिताय इत्यर्थः । षट्लेश्यायाः लक्षणं कथ्यते गाथायां : उम्मूलखंधसाहा गुच्छा चुणिउण भूमि तह पडिदा वा। जह एदेसि भावा तहाविहु लेस्सा मुणेयव्वा ।। पुनः शुद्धलेश्यांशकस्पृशे- शुद्धलेश्यायाः परमशुक्ललेश्यायाः अंशकं अंश स्पृशतीति शुद्धलेश्यांशकस्पृट् तस्मै शुद्धलेश्यांशकस्पृशे । पुनः नमः नमस्कारः भव्येतरावस्थाव्यतीताय भव्याऽवस्था इतरा अभव्यावस्था तया व्यतीतः रहितः भन्येतरावस्थाव्यतीतः तस्मै भव्येतरावस्थाव्यतीताय । पुनः विमोक्षिणे विशिष्टो मोक्षो विमोक्ष: मुक्तिः। तथोक्तं तत्त्वार्थसूत्रे 'बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः, तथा च आनन्दो ज्ञानमैश्वर्यं वीर्यं परमसूक्ष्मता। एतदात्यंतिकं यत्र सः मोक्षः परिकीर्तितः ।। विमोक्षो विद्यते यस्येति विमोक्षी तस्मै विमोक्षिणे अथवा विशिष्टो मोक्षो मोचनं कर्मभ्यो यस्य स विमोक्ष: सोऽस्यास्तीति विमोक्षी तस्मै विमोक्षिणे-जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है, उसको लेश्या कहते हैं। अथवा कषायों से अनुरंजित मन, वचन, काय रूप योग को लेश्या कहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्य और शुक्ल के भेद से लेश्या छह प्रकार की है। मूल जड़ को उखाड़ कर फल खाने की इच्छा करने वाले प्राणी के
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy