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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १११ विश्वतोमुख उच्यते = पानी का एक नाम विश्वतोमुख है, और पानी जैसे मल को नष्ट करता है, वैसे प्रभु असंख्यजन्मों के पापों का नाश करते हैं, विषयतृष्णा का निवारण करते हैं, और जल के समान प्रसन्न रहते हैं, अतः विश्वतोमुख हैं। विश्व संसारं तस्यति निराकरोति मुखं यस्येति विश्वतोमुखः = जिसका मुख संसार को तस्यति अर्थात् नष्ट करता है अर्थात् जिस मुख (जन्म) को पाकर फिर संसार की वृद्धि नहीं उसे भी विश्वतोमुख कहते हैं। भगवन्मुख दर्शनेन जीवः पुन: संभवे न संभवेदिति भावः अथवा विश्वतः . सर्वांऽगेषु मुखं यस्येति विश्वतोमुखः = प्रभु के मुखदर्शन से जीव पुन: संसार में उत्पन्न नहीं होते, सर्व अंगों में जिनके मुख हैं, ऐसे प्रभु विश्वतोमुख कहे जाते हैं। सर्व प्राणियों में मुख्य होने से भी भगवान् विश्वतोमुख कहलाते हैं। विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्तिर्जिनेश्वरः । विश्वदृग् विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥५॥ विश्वकर्मा = विश्वं कृच्छं कष्टमेव कर्म यस्य मते स विश्वकर्मा - जितने ज्ञानावरणादि कर्म समूह हैं वे सब ही कष्टदायक हैं, ऐसा जिनेश्वर ने अपने मत में कहा अत: वे विश्वकर्मा नामसे प्रसिद्ध हुए। विश्वस्मिन् जगति कर्म लोकजीवनकर क्रिया यस्य स विश्वकर्मा, कर्म अन्न असिमषिकृष्यादिकं राज्यावस्थायां ज्ञातव्यम्, विश्वेषु देवविशेषेषु त्रयोदशसंख्येषु कर्म सेवा यस्य स विश्वकर्मा = सब मनुष्यों के जीवनयापन के लिए असि, मषि, कृषि आदि षट्कर्म आवश्यक हैं ऐसा प्रभु ने राज्यावस्था में प्रजापालन करते समय उपदेश दिया अत: वे विश्वकर्मा हुए। अथवा त्रयोदश संख्या वाले विश्वदेव आपकी सेवा करते हैं इसलिए विश्वकर्मा हुए। जगज्ज्येष्ठः = षु स्तु द्रुद्र छु गम श गतौ गम् । गच्छतीत्येवंशीलं जगत् "धुति गमोर्दै च चिप्"। गर्द्धि वचनं, अभ्यासस्यादिव्यंजनमवशेष्यमकारलोप;, कवर्गस्य चवर्गस्य जः, जगत् जातं, पंचमोपधाया धुटि चागुणे दीर्घः, यम-मन-तन-गमा क्वौ पंचमलोपः, आत् अत् धातोस्तोंतः पानुबंधे तोतः विलोपोसि नपुंसकस्य मोर्लोपो न च तदुक्तं जगज्जातं, अयममीषां मध्ये प्रकृष्टः प्रशस्य: ज्येष्ठः तद्वदिष्टेमेयस्सु बहुलं इष्ट प्रत्ययः वृद्धस्य ज्य:, जगतां त्रिभुवनस्थित प्राणि वर्गाणां मध्ये ज्येष्ठः वृद्धो महान् श्रेष्ठो वा जगज्ज्येष्ठः =
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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