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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २३१ - पुन: नमः परमतेजसे परमं उत्कृष्टं तेजो भूरिभास्करप्रकाशरूपं यस्येति स परमतेजा: तस्मै परमतेजसे । पुनः परममार्गाय परम उत्कृष्टो मार्गो रत्नत्रय लक्षणो यस्येति स परममार्गः तस्मै परममार्गाय उक्तं च तत्त्वार्थसूत्रे- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। उक्त च धनंजयेन महाकविना विषापहारस्तोत्रे मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्तेश्चतुर्गतीनां गहनं परेण । सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन त्वं मा कदाचित् भुजमालुलोके ।। पुन: नमस्ते, परमेष्ठिने परमे उत्कृष्टे इंद्रधरणेन्द्र-गणेन्द्रादिवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी तस्मै परमेष्ठिने नमः॥२२॥ अर्थ : परमरूप हरि, हर आदि में नहीं पाया जाने वाला रूप कहलाता है। समन्तभद्राचार्य ने कहा है हे भगवन् ! आपके शरीर सम्बन्धी सौन्दर्य को देखकर दर्शन की अभिलाषा की पूर्ति को प्राप्त नहीं होने वाला, दो नेत्र वाला, इन्द्र बहुत भारी आश्चर्य से युक्त एक हजार नेत्रों का धारक हो गया था। अर्थात् अपने स्वाभाविक दो नेत्रों से प्रभु की सुन्दरता का अवलोकन कर संतोष को प्राप्त नहीं हुआ (सन्तुष्ट नहीं हुआ) अत: इन्द्र ने विक्रिया से एक हजार नेत्र बना लिये। मानतुंगाचार्य ने कहा है कि - "हे भगवन् ! जिन शांतरुचि परमाणुओं के द्वारा आपके शरीर का निर्माण हुआ है वे परमाणु इस पृथ्वी तल पर इतने ही थे इसलिए भूतल पर आपके सदृश किसी दूसरे का शरीर नहीं है।" समन्तभद्राचार्य ने और भी कहा है हे धीर ! प्रभो ! आभूषण, वेषों तथा शस्त्रों का त्याग करने वाला,ज्ञान, इन्द्रियदमन और दया में तत्पर आपका रूप ही रागादि दोषों के अभाव को कहता है। अर्थात् संसार के रागी, द्वेषी प्राणी ही मुकुट आदि आभूषणों से शारीरिक शोभा बढ़ाना चाहते हैं। अनेक प्रकार के वस्त्रों से शरीर सुसज्जित करना चाहते हैं और अनेक शस्त्रों से भय को दूर करना चाहते हैं। इन्द्रियविषयों के लोलुपी सदा भोगाकांक्षा से आतुर रहते हैं। इन बाह्य पदार्थों में लीन रहने से वे निर्दयी होते हैं, इनके लिए आरंभ आदि प्रवृत्ति कर हिंसक बनते हैं परन्तु आप तो
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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