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* जिनसहखनाम टीका २३० *
वाले तथा सकल सुख के स्थान केवलज्ञान को नमस्कार किया है। उस परम विद्या रूप केवलज्ञान के धारी आपको नमस्कार हो ।
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तीन सौ त्रेसठ एकान्तवादी पर मत ( पर - दर्शनों का) उच्छेद करने वाले 'परमतच्छिदे' भगवान आपको नमस्कार हो । अथवा समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभू स्तोत्र में कहा है
सर्वज्ञ, वीतरागादि बहुगुण रूपी सम्पदा से अपरिपूर्ण हैं, रहित हैं और मधुर वचनों की रचना से अतिमनोज्ञ हैं। ऐसे परमत का उच्छेद करने वाले तथा नैगम नयादि भंग रूप कर्णाभूषण को देने वाले एवं चारों तरफ से कल्याणकारक तेरे मत ही शोभनीय हैं। श्रेष्ठ आत्मतत्त्वस्वरूप होने से आप परमतत्त्व रूप हैं अतः आपको नमस्कार हो ।
परम (उत्कृष्ट) केवलज्ञानमय परमात्मा स्वरूप आपको नमस्कार हो ।
नमः परमरूपाय नमः परमतेजसे ।
नमः परममार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ॥ २२ ॥
उक्तं च मानतुंगाचार्यै;
टीका - परमरूपाय परमं हरिहरहिरण्यगर्भादीनामसुलभं रूपं शरीरं मूर्तिर्यस्येति परमरूपः तस्मै परमरूपाय । तथा चोक्तं समन्तभद्रदेवैः -
तवरूपस्य सौंदर्य दृष्ट्वा, तृप्तिमनापिवान् । द्व्यक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥
समन्तभद्रोक्तम् -
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यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्माणितस्त्रिभुवनैकललामभूत । . तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यते समानमपरं नहि रूपमस्ति ।
भूषावेषायुधत्यागि, विद्यादमदयापरम् । रूपमेव तवाचष्टे धीरदोषविनिग्रहम् ॥
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