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________________ श्री निगाहरूलाप दीक्षा - २२७ * अर्थ - स्व और पर का उपकार करने के लिए जो अपने धन का त्याग किया जाता है उसको दान कहते हैं। दान करने वाले के पुण्य का संचय होता है और लेने वाले के ज्ञानादि की वृद्धि होती है। भगवान् अनन्त जीवों का उपकार करने वाले, धर्मोपदेश देते हैं अतः अविनाशी दान के दाता आपको नमस्कार हो। अविनाशी (क्षायिक) दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र रूप नव लब्धि के धारक भगवन् आपको नमस्कार हो। केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। केवलदर्शनावरण के क्षय से उत्पन्न केवल दर्शन क्षायिकदर्शन है। दानान्तराय कर्मके क्षय से अनन्त जीवों का उपकारक उपदेश अनन्तदान है। लाभान्तराय कर्म के क्षय होने से अन्य साधारण जीवों में नहीं पाये जाने वाले असाधारण परम सूक्ष्म और परम शुभ अनन्तानन्त परमाणु प्रति समय सम्बंध को प्राप्त होते हैं वह अनन्त क्षायिक लाभ है। एक बार भोगा जाता है उसको भोग कहते हैं। भोगान्तराय कर्म के क्षय होने से गन्धोदकवृष्टि, पुष्पवृष्टि आदि होती है, वह क्षायिक भोग है। जो बार-बार भोगने में आता है उसको उपभोग कहते हैं। उपभोगान्तराय के क्षय से छत्र, चमर, सिंहासन आदि विभूतियाँ होती हैं वह क्षायिक उपभोग है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन के द्वारा सर्व द्रव्य और पर्यायों को जानने और देखने में समर्थ होना क्षायिक वीर्य है। चार अनन्तानुबंधी और तीन दर्शन मोहनीय इन सात प्रकृतियों का नाश होने से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। सोलह कषाय और नव नोकषाय के क्षय से क्षायिक चारित्र होता है। इन नव लब्धियों से युक्त को अनन्त लब्धि कहते हैं, उन अनन्त लब्धियों से युक्त भगवान को नमस्कार हो। . गन्धोदकवृष्टि, पुष्पवृष्टि, मन्द सुगन्धवायु, मन्द सुगन्धित वर्षा आदि एक बार भोगने में आने वाले भोगों के भोक्ता प्रभु अनन्त भोग कहलाते हैं, उन अनन्त भोग के भोक्ता तुम्हारे लिए नमस्कार हो । अथवा शरीर की स्थिति के कारणभूत प्रतिक्षण सूक्ष्म, परम विशुद्ध नोकर्म वर्गणा शरीर के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होती है उसको भी भोग कहते हैं। ऐसी अनन्त भोगवाली आत्मा को नमस्कार किया है। छत्र, चमर, सिंहासन, अशोकवृक्ष प्रमुख बार-बार भोगने
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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