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________________ . जिनसहस्रनाम टीका - १९७* यः कर्मद्वितयातीतस्तं मुमुक्षु प्रचक्षते । पाशैलॊहस्य हेम्नो वा यो बद्धो बद्ध एव सः ।। भव्य जीवों को घाति-कर्म तथा अघाति कर्मों से मुक्त करने की इच्छा करने वाले प्रभु मुमुक्षु हैं। निरुक्त में इसे ऐसा कहा है जो महायोगी दो प्रकार के कर्मों से रहित होना चाहता है उसे मुमुक्षु कहते हैं। परन्तु जो चाहे लोहपाश से या सुवर्णपाश से बद्ध है, उसे बद्ध ही समझना चाहिए। वा, मुक्ति की कामना करने से मुमुक्षु हैं। बन्धमोक्षज्ञः= बधं मोक्षं च जानातीति बन्धमोक्षज्ञः, तदुक्तम् बन्धमोक्षलक्षणं - मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः। बद्धो हि विषयासक्तो मुक्तो निर्विषयस्तथा। बंध और मोक्ष का स्वरूप जानने वाले प्रभु बंधमोक्षज्ञ हैं। मनुष्य का मन ही बन्ध तथा मोक्ष का कारण है। जो व्यक्ति पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्त हुआ है उसे बद्ध और जो उन विषयों में अनासक्त है उसे मुक्त समझना चाहिए। जिताक्ष:= जितानि अक्षाणि इन्द्रियाणि येनेति जिताक्षः विजितेन्द्रियः इत्यर्थः- जीत लिया है इंद्रियों को जिन्होंने, वे जितेन्द्रिय हुए हैं। __जितमन्मथ:- मनज्ञाने मन्मननं मक्विप् पंचमोपधा धुटि च गुणे दीर्घः, यभमनतनगमां क्वौ पंचमो लोपः अत् आत् धातोस्तान्तः पानुर्लोबंधे वेर्लो. सि. व्यंज. मनश्चेतनां मनातीति मन्मथः जितो मन्मथो मदनो येनेति जितमन्मथ: मनश्चेतना का मन्थन करने वाला मन्मथ-कामदेव है। जिसने मन्मथ को जीत लिया वह जितमन्मथ है। प्रशान्तरसशैलूष:- प्रशान्तश्चासौ रसः प्रशान्तरस: नवमरसः तत्र शैलूषः नटाचार्यः प्रशान्तरसशैलूष: उपशान्तरसनर्तकः इत्यर्थः, प्रशान्त-रसस्येदं, लक्षणं
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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