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*मैं जिनसहस्रनाम टीका - १९६ * जगज्योति:- जगतां प्राणिनां ज्योतिः कल्पवक्षः जगज्ज्योति; सूर्यचंदवत द्योतक इत्यर्थः तथाचोक्तमार्षे -
मद्यातोद्यविभूषाम्रग् ज्योतिहीपगृहाङ्गकाः । भोजनामत्रवस्त्रांगा: दशधा कल्पपादपाः ।।
जगत् के प्राणियों को प्रभु ज्योतिरंग कल्पवृक्ष के समान हैं। अथवा सूर्यचंद्रवत् जगत् को प्रकाशित करने वाले प्रभु जगज्योति हैं।
आर्षपुराण में दश प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम इस प्रकार हैं
पानाङ्ग, तूर्याङ्ग, विभूषाग, नगाङ्ग, ज्योतिरङ्ग, दीपाङ्ग, गृहाङ्ग, भाजनाङ्ग, भोजनाङ्ग, वस्त्राङ्ग ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं।
धर्मराजः= धर्मस्य अहिंसालक्षणस्य चारित्रस्य रत्नत्रयस्य उत्तमक्षमादेश्च राजा स्वामी धर्मराजः = अहिंसा लक्षण धारण करने वाला, चारित्र, रत्नत्रय तथा उत्तम क्षमादि जो दशधर्म उनके प्रभु स्वामी हैं अतः वे धर्मराज हैं। अथवा अहिंसा के शासक होने से भी धर्मराज हैं।
प्रजाहित: प्रजानां त्रिभुवनस्थितलोकानां हित: पथ्यः कर्त्ता वा प्रजाहित:त्रैलोक्य में स्थित सर्व जीवों को हित तथा पथ्य उपाय दिखाने वाले प्रभु हैं। वा प्रजा (सर्व जीवों के) हितकारी होने से 'प्रजाहित' कहलाते हैं।
मुमुक्षुर्बन्धमोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथः । प्रशान्तरसशैलूषो भव्यपेटकनायकः ॥५॥ मूलक खिलज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणः ।
आप्तोवागीश्वरःश्रेयांञ्छ्रायसोक्तिर्निरुक्तवाक् ॥६॥
अर्थ : मुमुक्षु, बन्धमोक्षज्ञ, जिताक्ष, जितमन्मथ, प्रशान्तरसशैलूष, भव्यपेटकनायक, मूलकर्ता, अखिलज्योति, मलघ्न, मूलकारण, आप्त, वागीश्वर, श्रेयान्, श्रायसोक्ति, निरुक्तवाक् ये पन्द्रह नाम प्रभु के सार्थक नाम हैं।
टीका : मुमुक्षुः- मोच मोक्षणे मोक्तुमिच्छति मुमुक्षतीत्येवंशीलो मुमुक्षुः, 'सनंतासंसे भिक्षामुः' तथाचोक्तं निरुक्ते