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________________ • जिनसहस्रनाम टीका - १९२ * हृदि तिष्ठति यत् शुद्धं रक्तपीषत् सपीतक। ओजः शरीरे व्याख्यातं, तन्नाशात् म्रियते नरः ।। गुरु शीलं मृदु स्निग्धं, बहुलं मधुरं स्थिरं। प्रसन्नं पिच्छिलं शुक्लमोजो दशगुणं स्मृतम्॥ एवं चर भूर्येण - ईषद्रक्तपीतं शुक्लं च निरुपममोजो व्यावर्णितं । तत्र केचित् बलमेवौजस्तेजस्वी विशेषेण व्यावर्णयंतीति - प्राणः स्वात्मबलं द्युम्नमोजः सुष्मं स्तरं सहः । प्रताप: पौरुषं तेजो विक्रमः स्यात्पराक्रमः॥ इति हलायुधे, प्रभु में अनंत ओज अर्थात् तेज, प्रकाश, बल, धैर्य होता है। अतः वे अनन्तौजा कहे जाते हैं। ओज शब्द का अर्थ शुक्र - वीर्य ऐसा भी है और इस शुक्र के विषा में मुश्रुत में ऐसा दान है- ओज अर्थात् जीर्य सोमात्मक है। वह स्निग्ध, शुक्ल, शीत, स्थिर और सर-सर्व शरीर में है, तो भी विविक्त स्थान में है, वह मृदु और सच्चिकण और प्राणों का घर है अर्थात् प्राणों का आधारभूत है। सर्व सावयव देह उससे व्याप्त है। चरक में भी कहा हृदय में जो शुद्ध और अल्प पीला रक्त रहता है उसे ओज कहते हैं और शरीर में वीर्य रहता है उसका जब नाश होता है तो मनुष्य मरता है। ओज में दश गुण रहते हैं। गुरु याने वजनवाला, शीत, मृदु, स्निग्ध, बहुल, मृदुल, स्थिर, कान्तियुक्त, सान्द्र तथा शुभ्र । इस प्रकार ओज को ही बल या प्राण कहते हैं, हलायुध कोश में इसके अनेक नाम हैं- ओज, प्राण, स्थाम, बल, द्युम्न, ओज, शुष्म, वरंसह, प्रताप, पौरुष, तेज, विक्रम, पराक्रम ये इसके ही नाम हैं। ज्ञानाब्धिः= ज्ञानस्य विज्ञानस्याब्धिः समुद्रः ज्ञानाब्धिः= ज्ञान-विज्ञान अर्थात् केवलज्ञान के प्रभु समुद्र हैं। शीलसागर:= शीलानि अष्टादशसहस्र संख्यानि तेषां सागर: समुद्रः निवासस्थानं शीलसागर:= प्रभु अठारह हजार शीलों के सागर-समुद्र हैं, निवासस्थान हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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