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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १९१ . तुल्यार्थः''= आशंसा - आकांक्षा, निराशंसा - वह आकांक्षा जिनसे अलग हुई है, जिनसे नष्ट हो गई है, वे निराशंस हैं, इच्छा रहित हो गये हैं। हलायुध नाममाला में कहा है इच्छा, वांछा, स्पृहा, कांक्षा, कामना, आशा, रुचि, आंशसा ये सब तुल्य अर्थवाची हैं। ज्ञानचक्षुः= मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानं, चक्षुर्लोचनं यस्येति ज्ञानचक्षुः मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान है नेत्र जिनके उसे ज्ञानचक्षु कहते हैं। अमोमुहः= मुह वैचित्ये अत्यर्थं मुह्यति धातोर्य चण्परोक्षागुणश्चेक्रियते मोमुह्य जात मोमुह्यत इत्येवशीलो नोमुहः। अन्नधादिष्परचेतिअत् रास्य लुगिचिक्रिय न लोप: मोमुहजातम् । नमोमुहः अमोमुहः । भृशं निर्मोह इत्यर्थः= मुह धातु मोहित अर्थ में है अत: सांसारिक पदार्थों में मोहित होने को मुह कहते हैं, अत्यन्त मोह को मोमह कहते हैं, जिनके मोह नहीं है, मोहनीय कर्म का विनाश हो गया है, उसको अमोमुह कहते हैं अर्थात् निर्मोही है। तेजोराशिः = रश इति सौत्रोऽयं धातुः रशतीति राशिः, अजिजन्य रशिपणेश्च इजप्रत्ययः। तेजसां भूरिभास्कर-प्रकाशानां राशिः पुंज: तेजोराशिः = भूरि प्रकाश की राशि (पुंज) को तेजो-राशि कहते हैं, भगवान् के शरीर का इतना प्रकाश होता है जिससे समवसरण में रात-दिन का भेद नहीं रहता अत: भगवान तेजोराशि हैं। अनंतौजा:= अनंत ओज़ोऽवष्टंभो दीप्तिः प्रकाशो बल धातुस्तेजो वा यस्य स अनंतीजाः। अथौजः किमुच्यते उषादाहे उषतीत्योजः, उपेश्चि, अनेन असन् प्रत्ययः षस्य जः। ओजः सोमात्मकं स्निग्धं, शुक्लं शीतं स्थिरं सरम् । विविक्तं मृदु मृत्स्नं च प्राणायतनमुत्तमम् ।। देह : सावयवस्तेन व्याप्तो भवति देहजः, इति सुश्रुतः। चरकेप्युक्तम्
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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