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________________ * जिनसहस्रनाम टीका- १८६ क्षम:- क्षमूषसहने क्षम्यते सोढुं परीषहान् क्षम: । 'क्षमः शक्तः ' हलायुधे प्रभु परिषह सहन करने में समर्थ हैं। = → शत्रुघ्नः = शत्रून हंतीति शत्रुघ्नः । 'अमनुष्य-कर्तृकेपिचटक्' अपि शब्दबलात् संजातसूर इत्यर्थः = कर्म शत्रुओं का नाश भगवन्त ने किया । अप्रतिघ: = अविद्यमानः प्रतिषः क्रोधो यस्य स अप्रतिषः प्रतिघ याने प्रभु क्रोध रहित थे अतः उन्हें अप्रतिघ नाम प्राप्त है। क्रोध, अमोघ : = मुह्य वैचित्ये मुह्यते मोघः, मुहेर्गुणश्च मुहे: क प्रत्ययो भवति हस्य घो गुणश्च न मोघो विफलः अमोघः सफलः इत्यर्थ: = मोघ विफल, न मोघः अमोघः भगवान का तपश्चरण विफल नहीं हुआ, इससे उन्हें केवलज्ञान रूप फल प्राप्त हुआ, अतः वे केवलज्ञान रूप फल प्राप्ति से अमोध सफल हुए । प्रशास्ता = प्रशास्ति विनयवरान् धर्मं शिक्षयति इति प्रशास्ता ने विनेयजनों को भव्यों को धर्म के पाठ पढ़ाये। अतः हे ए हैं। - - - - प्रभु शासिता = शासु अनुशिष्टौ शास्तीति शासिता रक्षक इत्यर्थः = प्रभु ने संसाररूप अपाय से भव्यजनों को बचाया। अतः वे शासिता रक्षक हैं। स्वभूः = स्वेन आत्मना भवति वेदितव्यं वेत्तीति स्वभूः अथवा स्वस्य धनस्य भूः स्थानं स्वभूः भक्तानां दारिद्र्यविनाशक इत्यर्थः अथवा सुष्टु अतिशयेन न भवतीति पुनर्भवेस्वभूः- परोपदेश के बिना अपना आत्मस्वरूप भगवंत ने प्राप्त किया तथा गुरूपदेश के बिना जीवादि पदार्थों का स्वरूप जान लिया । अतः वे स्वभू हैं। अथवा स्व की, धन की भू-भूमि स्थान प्रभु हैं। प्रभु भक्तों के दारिद्र्य का विनाश करते हैं। या प्रभु सु अतिशयपूर्वक, पुनः संसार में अभू - उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिए वे स्वभू हैं । - शांतिनिष्ठः = कामक्रोधाद्यभाव:, शांतिः तस्यां निष्ठा क्रिया यथाख्यातं चारित्रं यस्येति स शांतिनिष्ठ:- काम, क्रोधादिकों का अभाव होना ही शान्ति का स्वरूप है। प्रभु ने उसमें क्रिया की अर्थात् प्रभु यथाख्यात चारित्र में तत्पर हुए हैं। इसलिए वे शान्तिनिष्ठ हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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