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________________ * जिनसहस्रनाम टीका- १७० वर्णागमो गवेन्द्रादी, सिंहे वर्णविपर्ययः । षोडशादौ विकारस्तु, वर्णनाशः पृषोदरे ॥ इति नित्यवर्णागमः सार्वकालीनः इत्यर्थः, अथवा परात् श्रेष्ठात् परः श्रेष्ठं परात्परः श्रेष्ठाच्छ्रेष्ठ इत्यर्थः । अथवा परात् कर्म - शत्रोरपरः अन्यः केवलः इत्यर्थः = 'पृ' धातु पालन-पोषण अर्थ में है, अतः पालन-पोषण करने वाले को 'पर' कहते हैं, पालन-पोषण करने वालों में 'पर' श्रेष्ठ हो उसे 'परात्पर' कहते अथवा श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ है। अतः परात्पर हैं। अथवा 'पर' का अर्थ कर्मशत्रु है उन कर्मों से आप 'पर' रहित हैं, अकेले हैं, स्व रूप हैं अतः 'परात्पर' हैं । त्रिजगद्वल्लभः = त्रिजगतां वल्लभः अभीष्टः त्रिजगद्वल्लभः त्रैलोक्य प्रभु को प्रिय अभीष्ट मानते हैं इसलिए त्रिजगद्वल्लभ हैं। 14 सर्व अभ्यर्च्य := अर्च पूजायां अभ्यर्च्यते इति अभ्यर्च्य : पूज्य इत्यर्थः = सब भक्तों द्वारा जिनेश्वर पूज्य हैं। अतः अभ्यर्च्य हैं। त्रिजगन्मङ्गलोदय : = त्रिजगतां त्रिभुवनस्थितभव्यजीवानां मंगलानां पंचकल्याणानां उदयः प्राप्तिर्यस्मादसौ त्रिजगन्मंगलोदयः, तीर्थंकरनामगोत्रयोर्भक्तानां दायक: इत्यर्थ: तीन लोक में स्थित भव्यजीवों को मंगल स्वरूप प्रभु से पंचकल्याणों की प्राप्ति होती है । एवं भगवंत की आराधना से भक्तों को तीर्थंकर नाम कर्म की तथा उच्चगोत्र की प्राप्ति होती है। अतः प्रभु त्रिजगन्मङ्गलोदय स्वरूप हैं। - - त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रिः = त्रिजगतां पतिः त्रिजगत्पतिः तेन पूज्यो अभ्यर्च्य अंत्री चरणकमले यस्य स त्रिजगत्पति पूजांघ्रि:- त्रैलोक्य के स्वामी धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और सुरेन्द्रों के द्वारा प्रभु के चरण पूजनीय हैं। अतः उन्हें त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रि कहते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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