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________________ " जिनसहस्रनाम टीका - १६९ * तपःक्लेशसह इत्यर्थ : मन को शांत करने वाले होने से आप दाम्न हैं। अथवा दान्त, सांत पूर्ण अर्थ में हैं अत: जिसने हस्तादि क्रियाओं को या मन वचन काय को वश में किया है तथा तप के क्लेश को सहन करते हैं उनको भी दान्त कहते हैं। दमी = दमः इन्द्रियनिग्रहः अस्यास्तीति दमी = प्रभु ने इन्द्रियों को वश किया। स्पर्शादिक विषयों के प्रति इन्द्रियों को नहीं जाने दिया। अत: प्रभु दमी शान्तिपरायणः = क्षान्तौ क्षमायां परायण: तत्परः स शांतिपरायण: क्षमापर इत्यर्थः = आदि जिनेश्वर क्षमा धारण करने में तत्पर थे। अत: यह नाम यथार्थ है। अधिपः = अधिकं पाति सर्वजीवान् रक्षतीति अधिपः, 'उपसर्गेत्वातोड:'। अथवा अधिकं पिबति केवलज्ञानेन लोकालोकं व्याप्नोति इति अधिपः = सर्व जीवों का प्रभु रक्षण करते हैं। अत: वे प्रभु अधिप हैं। प्रभु अधिक तथा लोकालोक का पान करते हैं अर्थात् अपने केवलज्ञान से लोकालोक को उन्होंने व्याप्त किया है। परमानंदः = परम उत्कृष्ट; आनन्द: सौख्यं यस्येति परमानन्द:- उत्कृष्ट आनंद सुख प्रभु को प्राप्त हुआ है। अतः वे परमानन्द के धारक हैं, परमानन्द स्वरूप हैं। परात्मज्ञः = परः उत्कृष्ट: केवलज्ञानोपेतत्वात् परात्मा अथवा परे एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्ता: प्राणिनः आत्मा निश्चय-नयेन निजसमाना यस्य स परात्मा परात्मानं जानातीति, पर याने उत्कृष्ट अनन्तज्ञानादि केवलज्ञानयुक्त होने से परात्मज्ञ, अतः वे अनन्त ज्ञानादि स्वरूप को जानते हैं। या एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जो आत्मा प्राणी हैं वे निश्चयनय से मेरे समान शुद्ध स्वरूपी हैं, ऐसा जानने वाले प्रभु परात्मज्ञ कहलाते हैं। परात्परः = पृ पालनपूरणयोः पिपर्ति पृणात्ति वा पर: 'स्वरवृदृगमिग्रहामलनाम्यंत: गुणः' परात् अन्यस्मात् परः परात्पर:
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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