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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १६७ * वे एक कहे गये हैं। 'इण्' धातु गति अर्थ में है, एति अपने स्वभाव को प्राप्त होते हैं अतः एक हैं। नैक न एक: न असहायो नैक: अनेक इत्यर्थः, अथवा न विद्यते रुद्रः के आत्मनि यस्य स नैक:- प्रभु न एक -असहाय नहीं हैं। अनन्तगुणों से वे पूर्ण हैं। अत: वे असहाय नहीं हैं। का के, पातु की नरः में - नहीं है, ऐसे स्वभाव वाले प्रभु हैं। नानकतत्त्वदृक् = न एकतत्त्वं अनैकतत्त्वं न अनैकतत्त्वं पश्यतीति नानैकतत्त्वदृक् । आत्मतत्त्वं पश्यतीत्यर्थः नानकतत्त्वदर्शीत्यर्थः- प्रभु अनेक तत्त्वों को नहीं देखते हैं अर्थात् वे अपने आत्मस्वरूप को निरन्तर देखते रहते हैं। अत: नानैकतत्त्वदृक् हैं। अध्यात्मगम्यः= आत्मनि अधि अध्यात्मचित्तं तेन गम्यो गोचर: अध्यात्मगम्यः। अध्यात्मशब्दस्यार्थः कथ्यते - मिथ्यात्वादि-समस्त-विकल्पजाल-परिहारेण शुद्धात्मन्यधि यदनुष्ठानं तद्ध्यात्मा तेन गम्य: अध्यात्मगम्यः = अपनी आत्मा में जो चित्-ज्ञान है उससे प्रभु अपने स्वरूप को जानते हैं। अध्यात्म शब्द के अर्थ का खुलासा ऐसा है- आत्मा में जो मिथ्यात्व रागादिक समस्त विकल्प उठते रहते हैं, उनका विनाश कर अपने शुद्धात्म स्वरूप में जो स्थिर रहना उसे अध्यात्म कहते हैं। अपनी आत्मा के स्वरूप में स्थिर रहकर भगवान् आत्मा का स्वरूप यथार्थ जानते हैं। अथवा जो आत्मा के गोचर है उसे अध्यात्मगम्य कहते हैं। अगम्यात्मा = न गम्योऽगम्यःअगोचर; आत्मा यस्येति अगम्यात्मा, पापिनामगम्य इत्यर्थः = पापी लोगों को जिनेश्वर की आत्मा का स्वरूप ज्ञात नहीं होता है। अत: जिनेश्वर अगम्यात्मा हैं। योगवित् + योगमलब्धलाभ वेत्तीति योगवित् = जो प्राप्त नहीं हुआ उसे प्राप्त कर प्रभु ने खूब जाना। अत: वे योगवित् हैं। योगिवंदितः= योगो ध्यानसामग्री योगो विद्यते येषां ते योगिनः तैर्वन्दित: नमस्कृत : स योगिदितः= ध्यान सामग्री जिनके पास है ऐसे योगिजन से प्रभु वंदित होते हैं अर्थात् योगिजन जिनेश्वर की वन्दना करते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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