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* जिनसहस्रनाम टीका - १६६ * दिष्टिः = दिशति शुभाशुभफलमिति दिष्टिः वा दिश्यतेऽनया दिष्टिः तथानेकार्थे - 'दिष्टिरानंदमाने च' = प्रभु शुभ तथा अशुभ कार्य के सुखदायक तथा असुखदायक फलों का वर्णन करते हैं वा शुभाशुभ कर्मों का फल वर्णन किया जाता है अत: दिष्टि कहे जाते हैं। अथवा 'दिश्' धातु अनेक अर्थों में है 'आनन्द' ज्ञान अर्थ में भी 'दिश्' है जो आत्मीय मानत तक्षा केबनान में मग्न हैं अत: दिष्टि कहलाते हैं।
दैवं = देवस्यात्मन इदं दैवम् ‘दिष्टं भागधेयं भाग्यं स्त्री नियतिविधिः' - प्रभु भक्तों के लिए दैवस्वरूप भाग्य - स्वरूप हैं, सुख देने वाले हैं। तथा अभक्तों के लिए चे अशुभ दैव-स्वरूप हैं। तो भी प्रभु निर्मल शुद्ध स्वरूप हैं। अथवा दैव का अर्थ भाग्य है, नियति है विधि (कर्म) है। प्रभु भाग्य, नियति, विधि का कथन करने वाले हैं अतः 'दैव' हैं !
अगोचरः = गावश्चरंत्यस्मिन्निति गोचरः ‘गोचरसंचरवहव्रज व्यंजकमापणनिगमाश्च' न गोचरः नेंद्रियाणां गम्यः अगोचरः = गो-इन्द्रिय है, जो इन्द्रियों के द्वारा गम्य है, जानने योग्य है, वह गोचर है। भगवान् इन्द्रिय-गम्य नहीं हैं अतः अगोचर हैं।
अमूर्तः = 'मूर्छा मोहसमुच्छ्ययोः' । मूर्च्छति स्म मूर्त: न मूर्त्तः अमूर्तः अशरीर इत्यर्थः = मूर्छा, मोह के समुदाय मूर्छा हैं। मूर्छा को मूर्त कहते हैं वा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जिसमें है उसको मूर्त कहते हैं वा शरीर को मूर्त कहते हैं, जिनके मूर्त शरीर नहीं है अतः अमूर्त हैं।
मूर्त्तिमान् = मूर्च्छन मूर्तिः, मूर्त्तिराकारोऽस्यास्तीति मूर्त्तिमान्, प्रतिमा स्थापित इत्यर्थः- प्रभु अर्हदवस्था में जब थे तब ये सशरीर थे। उनकी उस अवस्था की स्थापना - जिनेश्वर में प्रतिमा में आरोपित करते हैं। तब स्थापना निक्षेप की अपेक्षा से उन्हें मूर्तिमान कहते हैं।।
एकः = इण् गतौ, एतीति एकः, इत्यभिकायाशल्यचिकृदाधाराभ्यक्' असहाय इत्यर्थः तथानेकार्थे - एकोन्यकेवलनेष्ठः संख्या = किसी के साहाय्य की अपेक्षा बिना प्रभु कर्मक्षय कर मुक्त हुए । अत: वे एक कहे जाते हैं। अथवा प्रभु मोक्षमार्ग का उपदेश देने के कार्य में अद्वितीय थे, श्रेष्ठ थे, मुख्य थे। अत: