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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १४५ . निरुत्तरः = निरतिशयेन उत्कृष्टः निरुत्तर: ‘प्रकृष्टे तरतमौ' अथवा निरुत्तरति संसारसमुद्रात् इति निरुत्तर: - प्रभु अतिशय उत्कृष्ट स्वरूप के धारक हैं। या संसार-समुद्र से भगवान पूर्णतया उत्तीर्ण हो गये हैं इसलिए वे निरुत्तर हैं। तर तम प्रत्यय उत्कृष्ट अर्थ में होते हैं। सुकृती धातुरिज्मर्हः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुख:॥७॥ अर्थ : सुकृती, धातु, इज्यार्ह, सुनय, चतुरानन, श्रीनिवास, चतुर्वक्त्र, चतुरास्य, चतुर्मुख, ये नौ नाम जिनदेव के हैं। टीका : सुकृती = शोभनं कृतं फलं यस्मात् सुकृतं, पुण्यमुच्यते सुकृतं पुण्यमस्यास्तीति सुकृती= जिससे शोभन-सुखदायक कृत-फल मिलता है उसे सुकृत कहते हैं, पुण्य को भी सुकृत कहते हैं, भगवान ने वह पुण्य प्राप्त किया है। अतः वे सुकृती हैं। धातुः = डुधाञ् डुभृत् धारणपूरणयोः, दधाति धत्ते वा क्रियालक्षणमर्थमिति धातुः, 'सितनिगमिमसिसच्यवधाञ्कृशिभ्यः स्तन् शब्दयोनिरित्यर्थ:= भगवान जिनराज धातुस्वरूप हैं। धातु क्रिया से शब्द उत्पन्न होते हैं वैसे जिनेश्वर से संपूर्ण द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है। 'डुधाञ्' धातु धारण और पूरण अर्थ में होता है अत: जो क्रिया अर्थलक्षण को धारण करती है वह धातु कहलाती है। 'सितनिग' आदि सूत्रसे स्तन् प्रत्यय करके जो शब्द की उत्पत्ति का स्थान होता है, उसे धातु कहते हैं, आप सारे शब्दों की उत्पत्ति के स्थान हो अत: आप धातु हो। इज्याह: = इज्यायाः पूजाया; अर्ह; योग्य: इज्यार्हः = जिनदेव पूजने योग्य हैं । हम जिन की प्रतिदिन त्रिकाल में पूजा कर पुण्य संचय करते हैं। अतः इज्याह हैं। सुनयः = ये स्याच्छब्दोपलक्षितास्ते सुनयाः यथा स्यान्नित्यः स्यादनित्यः, स्यानित्यानित्यः, स्यादवाच्यः, स्यान्नित्यश्चावक्तव्य;, स्यान्नित्यानित्यश्चावक्तव्यः स्यादनित्यश्चावक्तव्यः इति सप्तनयाः। अनेकान्ताश्रिताः सुनयाः ते यस्य स
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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