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卐 प्रथमोऽध्यायः ॥ प्रसिद्धाष्टसहस्रद्धलक्षणं त्वां गिरां पतिम् । नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ॥१॥
अन्वयार्थ : अभीष्टसिद्धये = मनोवांछित पदार्थ की सिद्धि (प्राप्ति) के लिए । प्रसिद्धाष्टसहस्रद्धलक्षणं = प्रसिद्ध एक हजार आठ लक्षणों को प्राप्त । गिरां = वाणी के । पतिम् = पति । त्वां = तुझको। अष्टसहस्रेण = एक हजार आठ। नाम्नां = नामों के द्वारा। तोष्टुमः = हम स्तुति करते हैं।
___ भावार्थ : 'हे प्रभो! हमें इष्टपदार्थ की प्राप्ति हो' इस अभिप्राय से जगविख्यात तथा उत्कृष्ट जिनके नाम हैं तथा जो सात सौ लघुभाषा एवं अठारह महाभाषाओं के अधिपति हैं, ऐसे आपकी अर्थात् ब्राह्मी तथा सुन्दरी दो कन्याओं के जनक ऐसे आदि प्रभु की एक हजार आठ नार्मों से हम बार-बार स्तुति करते हैं।
श्रीमान् स्वयम्भूर्वृषभः शम्भवः शम्भुरात्मभूः । स्वयंप्रभः प्रभु क्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥२॥
अन्वयार्थ : श्रीमान् = बहिरगा समवसरणलक्षणाश्री: अंतरंगा केवलज्ञानादिका श्री: विद्यते यस्य स श्रीमान = तीर्थकर नाम कर्म की प्रकृति का उदय होने से आदिप्रभु का दोनों लक्ष्मियों ने आश्रय ले लिया था अतः समवसरण आदि बहिरंग और अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये अंतरंग लक्ष्मी जिसके हैं वे श्रीमान् । स्वयम्भू = स्वयं भवतीति स्वयंभू = जो स्वशुद्धिशक्ति थी वह स्वयं प्रकट हुई थी। स्वयमात्मना गुरु