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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १३७ * भगवान ने संसार का अन्त नाश किया है। भगवान ने अन्त की मरण की (कृन्तति = ) सन्तति तोड़ दी है अतः वे अन्तकृत हैं। अथवा अन्त = मोक्ष के सामीप्य को, निकटपने को भगवान ने कृत याने प्रकट किया है। या व्यवहार को छोड़कर अन्त को, निश्चय को धारण किया है। अथवा भगवान ने अपने को मुक्ति के स्थानरूप बनाया है। या मुक्ति के एक पार्श्व में, एक भाग में भगवान रहते हैं। अतः वे अन्तकृत् हैं। कान्तगुः = कान्ता मनोज्ञा गोर्वाणी यस्य स कान्तगुः “गोरप्रधानस्यांतस्यास्त्रियामादादीनां चेति ह्रस्व: संध्यक्षराणामिदुतौ ह्रस्वादेशे' कान्ता, मनोज्ञ, मन को हरने वाली, भानेवाली, मन:प्रिय वाणी है जिनकी या ऐसी वाणी बोलते हैं जो, अत: वे कान्तगु हैं। 'गो' शब्द 'गोरप्रधानादि' सूत्र से ह्रस्व हो जाता है। अतः कान्तगुः बनता कान्तः = कमनं कान्तः शोभावानित्यर्थः= कमनीय, कान्त, सुन्दर शोभावान हैं जो वे कान्त हैं। चिंतामणिः = चिन्तायां स्मृत्यां, चिंताया: स्मरणस्य व; फलप्रदो मणिरिव मणिश्चिंतामणिश्चितितपदार्थप्रदः इत्यर्थः । अथवा चिंता स्मृतिर्ध्यानं वा तत्र फलप्रदो मणिः चिंतामणि: । चिन्ता करने पर अथवा जिनका स्मरण करने मात्र से फल मिलते हैं, ऐसे मणि के समान प्रभु हैं। या चिन्ता-स्मरण करने पर का ध्यान करनेपर प्रभु इच्छित फल देते हैं। इसलिए भगवान भक्तों के लिए चिन्तामणि हैं। अभीष्टदः = अभीष्टं मनोभिलषितं ददातीति अभीष्टद:= भक्तों के मन में जिस पदार्थ की इच्छा है उसको देने वाले प्रभु हैं अतः वे अभीष्टद हैं। अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासनः। जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तकः ।।२।। अर्थ : अजित, जितकामारि, अमित, अमितशासन, जितक्रोध, जितामित्र, जितक्लेश, जितान्तक ये आठ नाम जिनेन्द्र के हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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